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________________ उपा. यशोविजयरचिते "सद विशिष्टमेव सर्व', भेदप्रतियोगित्वानुयोगित्वादेः स्वरूपसम्बन्धात्मकत्वेनाप्यन्ततो जगदैक्यपर्यवसानात् , भेदस्याऽविद्योपकल्पितत्वात् , तथैव अतिस्वरसाद" इत्यद्वैतवादिश्रीहर्षमतमपि न रमणीयम् , भेदस्याऽवास्तवत्वे तदभावरूपाऽभेदस्यापि तथात्वात् , तादात्म्यस्यापि जगतः पौनरुक्त्याद्यापल्या सर्वथा वक्तुमशक्यत्वाच्चेत्यन्यत्र विस्तरः । होता है । नित्यगुणों में यह बात नहीं है, क्योंकि आश्रय के भेद से ही परमाणु आदि में आश्रित नित्यगुणों का भेद सिद्ध हो सकता है, क्योंकि नित्यगुण जो एक द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं, वे ही नित्यगुण समवाय सम्बन्ध से अन्य नित्यद्रव्य में नहीं रहते हैं । अतः इस परमाणु में समवेत रूपादि नित्यगुण अन्य परमाणु में समवेत नित्यगुण से भिन्न हैं, क्योंकि ये इसी परमाणु में आश्रित हैं। जो नित्यगुण जिस नित्य द्रव्य व्यक्ति में आश्रित हैं, वे नित्यगुण तदन्य नित्यद्रव्य समवेत गुणों से भिन्न हैं । जैसे-मुद्गारम्भक परमाणवृत्ति नित्यगुण यवारम्भक परमाणुवृत्ति नित्यगुणों से भिन्न हैं। अथवा आकाशवृत्ति परिमाण नित्यगुण आत्मा, काल, दिकवृत्ति परिमाण नित्यगुण से भिन्न हैं । अतः नित्यगुण में विशेष कल्पना का प्रयोजन कुछ भी नहीं है। इसलिए नित्यगुणों में भी नित्यद्रव्यों के जैसे विशेष कल्पना का प्रसङ्ग देना नियुक्तिक है। समाधान:- जैसे नित्यद्रव्यों में अतिरिक्त विशेष को मानकर परस्पर भेद सिद्ध कर के परस्पर भिन्न आश्रय के भेद से तदाश्रित नित्यगुणों में भेद की सिद्धि कणादमतानुयायि करते हैं, तो इन को यह समझाना है कि नित्यगणों में ही विशेषपदार्थ को मानकर, उन विशेषों के भेद से नित्यगुण का भेद सिद्ध कर के तदनंतर नित्यद्रव्याश्रित नित्यगुणों के भेद से तदाश्रय नित्यद्रव्यों की भी व्यावृत्ति हो सकती है । अतः परमाण नित्य द्रव्य से भिन्न हैं क्योंकि इस में एतत्परमाणवृत्ति नित्यगुण रहते हैं । अथवा आकाशरूप नित्यद्रव्य आत्मादि नित्यद्रव्य से भिन्न है क्योंकि आकाशवृत्तिपरिमाणरूप नित्यगुणवाला है, इसतरह के अनुमानों का अवतार नित्यगुणों में विशेषस्वीकार पक्ष में भी हो सकता है । तब नित्यद्रव्यों में ही विशेष को स्वीकार करना चाहिए, यह पक्ष प्रमाण से रहित है, अतः अतिरिक्त विशेषपदार्थ मानने में कोई प्रमाण नहीं है । [ सत्त्व का लक्षण त्रिकालाऽवाध्यत्व-वेदान्ती श्रीहर्ष ] (सदविशिष्ट) ब्रह्माद्वैतवादि श्रीहर्ष ब्रह्म को सतरूप मानते हैं, ब्रह्म में तार्किकाभिमत सत्ताजातिरूप सत्त्व इस को सम्मत नहीं है, क्योंकि जाति नाम का पदार्थ ही उन के मत में नहीं है । जाति का लक्षण तार्किक लोग करते हैं कि "जो वस्तु स्वयं नित्य हो और अनेक व्यक्तियों में समवाय सम्बन्ध से रहती हो वही जाति है।" परन्तु यह लक्षण अद्वैतवादी वेदान्तो नहीं मानते हैं क्योंकि उन के त से ब्रह्म को छोडकर और कोई भी वस्तु नित्य स्वीकृत नहीं है और समवाय भी उन के मेत में स्वीकृत नहीं है इसलिए नित्यत्व और समवाय से घटित जाति का लक्षण उन के मत में असम्भवित
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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