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________________ ज्यों ही हमें विवेक होता है अर्थात् ज्यों ही हम पुरुष का शरीर, इन्द्रिय, मन, अहङ्कार तथा बुद्धि से भेद समझने लगते हैं त्यों ही हमारे सुखों तथा दुःखों का अन्त हो जाता है । तब पुरुष का संसार के साथ कोई अनुराग नहीं रहता और यह संसार के घटनाक्रम का साक्षी या द्रष्टा मात्र रह जाता है । इस अवस्था को 'मुक्ति' या 'कैवल्य' कहते हैं । शरीर रहते हुए भी मुक्त पुरुष इससे ममत्व हटा लेते हैं । इसे 'जीवन्मुक्ति' कहते हैं । देहान्त के बाद जो मुक्त पुरुष का शरीर भी नष्ट हो जाता है उसे 'विदेह मुक्ति' कहते हैं । केवल विवेकज्ञान होने से ही हमें आत्मज्ञान नहीं होता और न हम अपने दुःखों से ही पूर्णतया मुक्त हो पाते हैं । इसके लिये सतत आध्यात्मिक अभ्यास, साधना की आवश्यकता होती है । इस अभ्यास के लिये तत्त्वज्ञान के प्रति पूरी श्रद्धा तथा उसके अनवरत चिन्तन की आवश्यकता है । विवेकज्ञान होने पर हम पुरुष को विशुद्ध चैतन्य एवं तन-मन, देश-काल तथा कार्य-कारण से पूर्णयता पृथक् समझने लगते हैं । पुरुष अनादि और अनन्त हैं । यह निरपेक्ष अमर तथा नित्य है । आत्मज्ञान के लिये जिस साधना की आवश्यकता है उसका साङ्गोपाङ्ग वर्णन योगदर्शन में किया जायेगा । साङ्ख्य-दर्शन निरीश्वरवादी है । इसके अनुसार ईश्वर का अस्तित्व किसी प्रकार सिद्ध नहीं किया जा सकता । संसार की दृष्टि के लिये ईश्वर का अस्तित्व आवश्यक है, क्योंकि समस्त संसार के निर्माण के लिये प्रकृति ही पर्याप्त है । शाश्वत तथा अपरिवर्तनशील ईश्वर जगत् की सृष्टि का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि कारण तथा परिणाम वस्तुतः अभिन्न होते हैं। कारण ही परिणाम में परिणत हो जाता है । ईश्वर संसार में परिणत नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर परिवर्तनशील नहीं माना जाता । साङ्ख्य के भाष्यकार विज्ञानभिक्षु सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि साङ्ख्य ईश्वर के अस्तित्व को एक विशिष्ट पुरुष के रूप में मानता है । उनका कथन है कि ईश्वर प्रकृति का द्रष्टा मात्र है, स्रष्टा नहीं । 21..
SR No.022471
Book TitleShaddarshan Samucchay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan
Publication Year2002
Total Pages146
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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