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________________ शङ्कर उपर्युक्त विचारों को युक्तिपूर्ण बनाने के लिये दृष्टियों का दो प्रकार से विभेद करते हैं-१. व्यावहारिक दृष्टि तथा २. पारमार्थिक दृष्टि । १. व्यावहारिक दृष्टि साधारण मनुष्यों के लिये है जो संसार को सत्य मानते हैं । हमारा व्यावहारिक जीवन इसी दृष्टि पर निर्भर है । इसके अनुसार संसार सत्य है । ईश्वर इसका सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान् स्रष्टा, रक्षक तथा संहारक है । इस दृष्टि से ईश्वर के अनेक गुण हैं । अर्थात् वह सगुण है । शङ्कर इस दृष्टि के अनुसार ब्रह्म को सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहते हैं । उसके अनुसार आत्मा एक शरीरनद्ध सत्ता है । इस में अहम्भाव की उत्पत्ति होती है। २. पारमार्थिक दृष्टि ज्ञानियों की है जो यह समझ जाते हैं कि संसार मायिक है और ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है । संसार की असत्यता ज्ञात हो जाने पर ब्रह्म को स्रष्टा नहीं माना जा सकता । ब्रह्म के लिये सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्त्व आदि गुणों का कोई अर्थ नहीं रह जाता । ब्रह्म में स्वगत भेद भी नहीं रहता । इस पारमाथिक दृष्टि के अनुसार ब्रह्म निविकल्प तथा निर्गुण हो जाता है । इसे निर्गुण ब्रह्म कहते हैं । इसके अनुसार शरीर भी भ्रान्तिमूलक हो जाता है और आत्मा तथा ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह जाता । यह पारमार्थिक दृष्टि अविद्या के दूर होने पर ही सम्भव है । अविद्या का नाश वेदान्त का ज्ञान होने पर ही होता है । अविद्या को दूर करने के लिये मनुष्य में इन्द्रिय तथा मन का संयम, भोग्य वस्तुओं से विराग, वस्तुओं की अनित्यता का ज्ञान, तथा मुमुक्षुत्व (मुक्ति के लिये प्रबल इच्छा का होना) आवश्यक है । तत्पश्चात् ऐसे व्यक्ति को किसी योग्य गुरु से वेदान्त का श्रवण करना चाहिये और उसके सिद्धान्तों का मनन तथा निदिध्यासन करना चाहिये । तत्पश्चात्, शिष्य के योग्य हो जाने पर, गुरु उसे कहता है-'तत् त्वम् असि' (तुम ब्रह्म हो) । गुरु की इस उक्ति का वह मनन करता है और अन्त में उसे साक्षात् ज्ञान हो जाता है कि 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) । यही पूर्ण ज्ञान है और इसी को 'मोक्ष' कहते हैं । ऐसा ज्ञानी तथा 16
SR No.022471
Book TitleShaddarshan Samucchay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan
Publication Year2002
Total Pages146
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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