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________________ प्रस्तावना [ न्यायावतारटीका के प्रकाशनों की सूचना पहले सिद्धसेन के परिचय में दी है । ] ३२. अनन्तकीर्ति — अनन्तकीर्ति के चार ग्रन्थ ज्ञात हैं । इन में दो - लघुसर्वज्ञसिद्धि तथा बृहत् सर्वज्ञसिद्धि प्रकाशित हुए हैं। इन का विस्तार क्रमश: ३०० तथा १००० इलोकों जितना है तथा दूसरा प्रकरण पहले का ही कुछ विस्तृत स्पष्टीकरण है । इन प्रकरणों में सर्वज्ञ की सिद्धता का यह आधार माना है कि ज्योतिष, निमित्त आदि शास्त्रों का - जो से जाने नही जा सकते अनुमान किसी ने साक्षात् प्रवर्तन किया है - वही सर्वज्ञ तीर्थंकर हैं। इस के प्रतिपक्ष में कुमारिलभट्ट तथा उनके अनुयायी मीमांसकों ने जो आक्षेप प्रस्तुत किये हैं उन का निरसुन लेखक ने किया है तथा वेद की अपौरुषेयता का भी खण्डन किया है । - [ प्रकाशन -- लघीयस्त्रयादिसंग्रह में - सं. पं. कल्लाप्पा निटवे, माणिकचंद्र ग्रन्थमाला, १९१५, बम्बई] अनन्तकीर्ति के दो ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं जो अनुपलब्ध है । इन में स्वतः प्रामाण्यभंग का उल्लेख अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चयटीका में किया है ? | नाम से प्रतीत होता है कि इस में वेद स्वतः प्रमाण हैं इस मीमांसक-मत का खण्डन रहा होगा। दूसरा ग्रन्थ जीवसिद्धि - निबंध है । इस का उल्लेख वादिराज ने किया है । समंतभद्र के जीवसिद्धि नामक ग्रन्थ का पहले उल्लेख किया है । सम्भव है कि अनंतकीर्ति का प्रस्तुत ग्रन्थ उसी की टीका हो । वादिराज तथा अनंतवीर्य द्वारा उल्लेख होने से अनंतकीर्ति का समय दसवीं सदी के उत्तरार्ध से पहले सिद्ध होता है । उन्हों ने विद्यानंद के ग्रन्थों का उपयोग किया है । अतः दसवीं सदी का पूर्वार्ध यह उन का समय निश्चित होता है । १ ) शेषमुक्तवत् अनन्तकीर्तिकृतेः स्वतः प्रामाण्यभंगादव सेयम् (पृ. २३४ ) २) आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धिं निवध्नता । अनन्तकीर्तिना मुक्तिरत्रिमार्गेव लक्ष्यते ।। पार्श्वचरित १-२४ । ३) जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४०४ में पं. नाथुराम प्रेमी । ४ ) सिद्धिविनिश्चयटोका प्रस्तावना पृ. ८५ में पं. महेन्द्रकुमार ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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