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________________ पृ. ६२] . . टिप्पण ३२३ यिक, वेदान्ती आदि यह मान्य करते हैं कि जीवों का सुखदुःख उन के कर्मों पर निर्भर है | इस से ईश्वर की शक्ति बहुत मर्यादित हो जाती है -वह फल देने में निमित्त कारण है, प्रधान कारण नहीं है । पृष्ठ ५७-ज्ञान के स्वसंवेदन की चर्चा आगे विस्तार से की है (पृ. २०८-११३)। लेखक ने स्वसंवेदन यही चैतन्य का मुख्य लक्षण बतलाया है-चेतन वही है जो अपने आप को जानता हो । न्याय दर्शन में और वेदान्त में भी स्वसंवेदन किसी तरह स्वीकार नही किया है। अतः लेखक का मन्तव्य है कि उन दर्शनों में चैतन्य का स्वरूप ठीक से ज्ञात नही है। पृष्ठ ५८-मीमांसक और नैयायिक दोनों वेदों को प्रमाण मानते हैं। लेकिन मीमांसक ईश्वर के अस्तित्व को नही मानते । फिर भी वैदिक परंपरा के पुण्यकार्य और पाप कार्य का स्वरूप दोनों को समान रूप से मान्य है। अतः पुण्य और पाप का कोई निश्चित सम्बंध ईश्वर से नही जोडा जा सकता। जैन और बौद्ध दर्शनों में ईश्वर न मानते हुए भी पुण्य-पाप की मान्यताएं पूर्णतः व्यवस्थित है। पृष्ट ६१ - इस अनुमान में पृथ्वी इत्यादि कार्य यह पक्ष है, पुरुषकृत न होना यह साध्य है तथा सशरीर या अशरीर कर्ता का संभव न होना यह हेतु है । इस अनुमान में घट आदि विपक्ष हैं-इन का सशरीर कर्ता ज्ञात है जब कि पृथ्वी आदि का कर्ता ज्ञात नही है। तथा आकाश सपक्ष है-पृथ्वी आदि के समान आकाश का भी कोई कर्ता ज्ञात नही है। सशरीर-अशरीर कर्ता न होना यह हेतु आकाश आदि सपक्ष में है तथा घट आदि विपक्ष में नहीं है अतः उस से पुरुषकृत न होना यह साध्य योग्य रीति से सिद्ध होता है। - पृष्ठ ६२-यहां से ईश्वर के अस्तित्व का विचार एक दुसरे. . ढंग से प्रस्तुत किया है-जगत के समस्त कार्य किसी समय नष्ट होते हैं और ईश्वर की प्रेरणा से यह विनाश होता है ऐसा यह विचार है । इस प्रकार का पूर्ण प्रलय जैन दर्शन में मान्य नहीं है। जैन कथाओं में जिस प्रलय का वर्णन किया है वह केवल भारत तथा ऐरावत वर्षों के आर्यखंडों में होती है, वह भी पूर्ण नही होतीउस से बचे हुए हर प्रकार के जीवों से ही पुनः आर्यखंड में समाज का विकास होता है। १) बादरायण-ब्रह्मसूत्र २।१।३४ वैषम्यनैपुण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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