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________________ टिप्पण होता है। वह वर्तमान तथा सम्बद्ध विषय तक मर्यादित नहीं होता-यही सर्वज्ञ सिद्धि का मुख्य विषय है। पृ. २---जीव शरीर का कार्य है इस मत का निरसन परि. ७ में प्रस्तुत किया है। आकाश के समान जीव व्यापक है व अमूर्त है अतः वह नित्य है यह तर्क चार्वाक के प्रति उपयुक्त नही है क्यों कि चार्वाक आकाश द्रव्य को भी मान्य नही करते-उन के मत में पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये चार ही द्रव्य . हैं-साथही वे जीव को अमूर्त या व्यापक भी नहीं मानते । पृ. ३-चैतन्य चैतन्य से ही उत्पन्न होता है अतः जन्मसमय का चेतन जीव भी पूर्ववर्ती चेतन जीव का कार्य है -इस प्रकार जीव के अनादि होने की सिद्धि विद्यानन्द ने प्रस्तुत की है २ । इस के पहले अकलंक ने इसी अनुमान का एक रूपान्तर प्रस्तुत किया है ३ | चार्वाकों ने इस का उत्तर दो प्रकारों से दिया है। एक तो यह कि जन्म समय के चैतन्य को उत्पत्ति शरीर से होती है -शरीर ही उस चैतन्य का उपादान कारण है। दूसरा उत्तर यह है कि जन्म समय के चैतन्य का उपादान कारण उस शिशु के मातापिता का चैतन्य है । इस दूसरे कथन के अनुसार पुत्र ही पिता का पुनर्जन्म है और पिता ही पुत्र का पूर्वजन्म है -वंशपरम्परा ही चैतन्य के सातत्य की द्योतक है । इस मत का समर्थक एक वाक्य ऐतरेय ब्राह्मण में उपलब्ध होता है । ग्रन्थकर्ता ने प्रस्तुत ग्रन्थ में इस अनुमान का कोई उत्तर नही दिया है-सम्भवतः इस लिए कि जैन दृष्टि से यह बहुत स्पष्ट है; शिशु के शरीर का निर्माण मातापितापर अवलम्बित है किन्तु शिशु का ज्ञान-दर्शन मातापिता के ज्ञान-दर्शन से सर्वथा भिन्न है, ज्ञान-दर्शन ही जीव का लक्षण है अतः शिशु का जीव मातापिता के जीवों से भिन्न है। परि. २, पृ. ४-आगम तथा अनुमान ये दोनों लौकिक विषयों में ही उपयुक्त होते हैं- अतीन्द्रिय विषयों में उन का उपयोग सम्भव नही ऐसा १) किंबहुना प्राचीन जैन परम्परा में प्रत्यक्ष ज्ञान अतीन्द्रिय ही माना है तथा इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष कहा है। बाद में इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया वह व्यवहार की दृष्टि से था। २) अष्टसहस्री पृ.६३ प्राणिनामाद्यं चैतन्यं चैतन्योपादानकारणकं चिद्विवर्तत्वात् मध्यचैतन्यविवर्तवत् । ३) सिद्धिविनिश्चय ४-१४ न पुनश्चेतनः चैतन्य विहाय विपरिवर्तते अचेतनः चेतनो भवन् संलक्ष्यते। ४) ऐतरेय ब्राह्मण ७-३-७ पतिजीयां प्रविशति गर्भो भूत्वा स मातरम् । तस्यां पुनर्नवो भूत्वा दशमे मासि जायते ॥ तत् जाया जाया भवति यदस्यां जायते पुनः॥
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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