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________________ २९२ विश्वतत्वप्रकाशः [ ८७ व्यतिरेके चपलादिवत् । तेषां क्षणिकत्वेन तदानीं विनाशे अन्वयव्यतिरेकयोर्भूयो दर्शनात् साध्यसाधनयोर्व्याप्तिग्रहणं नोपपद्यते । व्याप्तिग्रहणेऽपि गृहीतव्याप्तिकस्य तदानीं विनष्टत्वात् तत्स्मरणं न जाघटयते तत्स्मृतावपि स्मारकस्य तदानीं विनष्टत्वात् तदनुमानं न जाघटीति । अनुमितावपि अनुमातुस्तदानीं विनष्टत्वादिष्टानिष्टसाधनत्वं ज्ञात्वा तत्र प्रवृत्तिनिवृत्तिव्यवहारप्रवर्तकत्वं नोपपनीपद्यते । ननु आत्मनः क्षणिकत्वेऽपि संस्कार सद्भावात् तद्वशेन भूयोदर्शनादिकं भविष्यतीति चेन्न । संस्कारस्यापि क्षणिकत्वेन तदानीं विनष्टत्वात् । ननु सदृशापरापर संस्कारोत्पत्तेभूयोदर्शनादिकं सर्वे भविष्यतीति चेन्न । उत्तरोत्तरोत्पन्नसंस्काराणां प्राक्तनत वार्तानभिज्ञातत्वात् । तत्कथमिति चेत् प्रपितामहेन भूयोदर्शनं पितामहेन व्याप्तिग्रहणं पित्रा व्याप्तिस्मरणं पुत्रेणानुमानं पौत्रेणेष्टसाधन हैं तो संस्कार भी क्षणिक होगा अतः वह भी धन रखनेवाले के समान नष्ठ ही होगा । एक संस्कार नष्ट होने पर दूसरा उत्पन्न होता है । अतः बाद के संस्कार द्वारा धन वापस लेना सम्भव है यह कथन भी उचित नही । बादका संस्कार उत्पन्न हुवा भी तो उसे पहले के संस्कार का ज्ञान नहीं होगा अतः वह धन वापस लेने में समर्थ नही होगा 1 जो वस्तु धरोहर रखी जाती है वही वापस ली जाती है इस से भी वस्तु का क्षणिक न होना सिद्ध होता है । 1 आत्मा यदि बिजली जैसे क्षणिक हों तो उन्हें व्याप्ति का ज्ञान या स्मरण सम्भव नही होगा - यह हो तो वह होता है ऐसे सम्बन्ध को बार बार देखने से व्याप्ति का ज्ञान होता है, जो आत्मा एक ही क्षण विद्यमान रहता है उसे ऐसे सम्बन्ध को बार बार देखना या स्मरण रखना सम्भव नही है । जिसे व्याप्ति का ही ज्ञान या स्मरण नही है वह अनुमान कैसे कर सकेगा ? अनुमान करनेवाला यदि एक ही क्षण में नष्ट होता है तो उस अनुमान पर आधारित इष्ट की प्राप्ति या अनिष्ट के परिहार में कौन प्रवृत्त होगा ? संस्कारों की परंपरा से यह सब सम्भव है ऐसा बौद्ध कहते हैं किंतु उत्तरवर्ती संस्कार को पूर्ववर्ती संस्कार का ज्ञान नही होता अतः ऐसा सम्भव नही है । इसी का स्थूल उदाहरण देते है - परदादा किसी सम्बन्ध को बारवार देखे, दादा उस की व्याप्ति जाने, पिता उस व्याप्ति का स्मरण
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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