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________________ -७६] न्यायमतोपसंहारः २४९ प्रमेयमिति पदार्थद्वयमेव जाघटयते । ततो नान्यत् पदार्थान्तरं योयुज्यते। अथ प्रयोजनवशात् संशयादीनां पृथक् कथनमिति चेत् तर्हि चतुर्विधप्रमाणानां द्वादशविधप्रमेयानां पञ्चविधावयवानां षट्हेत्वाभासानां द्वादशविधदृष्टान्ताभासानां त्रिप्रकारच्छलानां चतुर्विंशतिविधजातीनां द्वाविंशतिविधनिग्रहस्थानानां च प्रत्येकं प्रयोजनमेदसद्भावात् षण्णवतिपदार्थाः प्रसज्येरन् । षडिन्द्रियपदार्थपदसंबन्धषड्बुद्धि सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नसंसर्गादीनां प्रत्येक प्रयोजनसद्भावात् पदार्थाः अनन्ताः प्रसज्येरन् । नो चेत् षोडशापि मा भूवन्। एवं नैयायिकोक्तप्रकारेण षोडशपदार्थानां याथात्म्यासंभवेन तदविषयज्ञानस्य तत्वज्ञानत्वाभावान्न ततो निःश्रेय. साधिगम इति स्थितम् । . [ ७६. योगत्रयविचारः।] ननु भक्तियोगः क्रियायोगः ज्ञानयोग इति योगत्रयैर्यथासंख्यं सालोक्यसारूप्यसामीप्यसायुज्यमुक्तिर्भवति । तत्र महेश्वरः स्वामी स्वयं भृत्य इति तच्चित्तो भूत्वा यावजीवं तस्य परिचर्याकरणं भक्तियोगः। असभ्य वचन, आरोप-प्रत्यारोप आदि को पदार्थ क्यों नही माना जाता ? वास्तव में संशयादि सभी का ज्ञान प्रमाणों से ही होता है । अतः प्रमाण और प्रभेय ये दो ही पदार्थ मानना योग्य हैं - बाकी सब का प्रमेय में अन्तर्भाव होता है। और यदि पृथक् पृथक् गिनती करनी है तो चार प्रमाण, बारह प्रमेय, पांच अवयव, छह हेत्वाभास, बारह दृष्टान्ताभास, तीन छल, चौवीस जाति तथा बाईस निग्रहस्थान इन सब को मिलाकर ९६ पदार्थ मानना चाहिये । और भी छह इन्द्रिय, पद और अर्थ का सम्बन्ध, छह बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संसर्ग आदि अनगिनत पदार्थ माने जा सकते हैं । इस प्रकार नैयायिकों के सोलह पदार्थों का ज्ञान तत्त्वज्ञान नही माना जा सकता । अतः उससे निःश्रेयस की प्राप्ति भी सम्भव नही है। ७६. योगत्रय का विचार-नैयायिक तीन प्रकार के योगोंद्वारा मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा मानते हैं। ईश्वर को स्वामी तथा अपने आपको सेवक मानकर ईश्वर की आराधना करना भक्तियोग है- इस से सालोक्य मुक्ति मिलती है। तप और स्वाध्याय करना क्रियायोग है -
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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