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________________ -५५] मायावादविचारः १९१ न वीतमन्तःकरणं कर्तृ भोक्तृवित्करणत्वतः। जाड्यादुत्पत्तिमत्त्वाच्च चक्षुरादिघटादिवत् ॥ इति प्रमाणसद्भावादन्तःकरणस्य धर्मादिकर्तृत्वं तत्फलभोक्तृत्वं च न जाघटयते। तथा तस्य भवाद् भवान्तरप्राप्तिरपि नोपपनी पद्यते इत्यावेदयति । अन्तःकरणं विमतं परदेहं न गच्छति । करणत्वाद् विदुत्पत्ती' स्पर्शनं संमतं यथा ॥ इति । अथ स्पर्शनादीन्द्रियाणामप्येतेषां भवान्तरप्राप्तिसद्भावात् साध्यविकलो दृष्टान्त इति चेन्न। स्पर्शनादीन्द्रियं धर्मि परदेहं न गच्छति । इन्द्रियत्वाद् विनाशित्वात् जन्मवत्वाच्च पाणिवत् ॥ इति बाधकप्रमाणसदभावात् । ततः स्वर्गापवर्गाप्तिः प्रमातणां न विद्यते। न चान्तःकरणस्यापि तदर्थ कः प्रवर्तते ।। प्रमातणां विनाशित्वादपरस्य ह्यसंभवात् । संभवेऽपि ह्यबद्धत्वात् कस्य मोक्षः प्रसज्यते ॥ क्या कार्य रहा ? ' अन्तःकरण कर्ता या भोक्ता नही हो सकता क्यों कि वह ज्ञान का साधन है, जड है तथा उत्पत्तियुक्त है, जैसे कि चक्षु आदि इन्द्रिय और घट आदि पदार्थ होते हैं।' इसी प्रकार अन्तःकरण दूसरे शरीर को प्राप्त नहीं कर सकता – 'अन्तःकरण स्पर्शनेन्द्रिय आदि के समान ज्ञान का साधन है अतः वह दूसरे शरीर को प्राप्त नही कर सकता।' स्पर्शनादि इन्द्रिय भी दूसरे देह को प्राप्त करते हैं यह कथन ठीक नही - ' स्पर्शन आदि इन्द्रिय हाथ आदि के समान ही उत्पत्ति तथा विनाश से युक्त हैं अतः वे दूसरे शरीर को प्राप्त नही हो सकते।' तात्पर्य - 'प्रमाता को अथवा अन्तःकरण को स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होना संभव नही। अतः उस के लिए प्रयास कौन करेगा ? प्रमाता विनष्ट होते हैं. अन्तःकरण को मोक्ष प्राप्त नही हो सकता तथा अन्त:करण बद्ध भी नही है, फिर मोक्ष किसे प्राप्त होता है ? आगम और युक्ति १ ज्ञानोत्पत्तौ । २ कर्मेन्द्रियवत् । ३ स्वर्गादिप्राप्तिन । ४ अन्तःकरणस्य ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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