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________________ प्रस्तावना तान्त्रिक विवरण, प्रसंगसाधन, अनुमान में उपाधि का विवरण आदि है - उस का समावेश अनुवाद में नही किया है। जैसे भाग का यथासंभव पूर्ण विवरण टिप्पणों में दिया है । मल में जहां एक ही युक्ति को दुहराया है वहां अनुवाद में प्रायः यह पुनरुक्ति छोड दी है । पूर्वपक्ष का वर्णन भी जहां मूल में विस्तारसे दुहराया है वहां अनुवाद में उसके पहले स्थल का संक्षिप्त निर्देश किया है। इन सब परिवर्तनों का उद्देश इतना ही है कि साधारण पाठक प्रत्येक विषय के युक्तिवाद को सरलता से समझे । विशेष अध्ययन की सामग्री टिप्पणों में उपलब्ध होगी। ८. प्रमुख विषय जीवस्वरूष-ग्रन्थ के प्रारंभ में चार्वाक दर्शन का पूर्व-पक्ष है (पृ० १-९)। चार्वाकों का आक्षेप है कि जीव नामक कोजी अनादि-अनन्त स्वतन्त्र तत्व है यह किसी प्रमाण से ज्ञात नही होता। जीव अथवा चैतन्य शरीररूप में परिणत चार महाभूतों से ही उत्पन्न होता है, वह शरीरात्मक अथवा शरीर का ही गुण या कार्य है। इस के उत्तर में लेखक का कथन है (पृ० ९-२३ ) कि जीव और शरीर भिन्न हैं क्यों कि जीव चेतन, निरवयव, बाह्य इन्द्रियों से अग्राह्य, स्पर्शादिरहित है; इस के प्रतिकूल शरीर जड, सावयव, बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य एवं स्पर्शादिसहित है। चैतन्य चैतन्य से ही उत्पन्न हो सकता है, जड महाभतों से नही । शरीर जीवरहित अवस्था में पाया जाता है तथा जीव भी अशरीर अवस्था में पाया जाता है अतः संसारी अवस्था में जीव और शरीर एकत्र होने पर भी उन का स्वरूप भिन्न भिन्न है । जीव के अनादि-अनन्त होने का ज्ञान सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष होता है तथा हम अनुमान और आगम से उसे जानते हैं । सर्वज्ञवाद-आगम के उपदेशक सर्वज्ञ का अस्तित्व चार्वाक तथा मीमांसकों को मान्य नही है, उन के आक्षेपों का विचार लेखक ने किया है ( पृ० २४-४२ )। सर्वज्ञ के अस्तित्व का ज्ञान आगम से तथा अनुमानों से होता है । सर्वज्ञ नही हो सकते यह सिद्ध करना सम्भव नही है। जैसे अनेक पदार्थों के ज्ञाता हमारे जैसे व्यक्ति होते है वैसे ही समस्त
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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