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________________ १५२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [४५इत्याद्यागमप्रामाण्याभावस्य प्रागेव प्रतिपादितत्वाच्च । किं च। शुक्तौ रजतस्योत्पत्तिसामग्यभावेन उत्पत्तिमत्त्वाभावात् साधनविकलो दृष्टान्तः स्यात् । अथ शुक्त्यज्ञानादुपादानकारणभूतात् तत्र रजतमुत्पद्यत इति चेन। शुक्त्यज्ञानस्य रजतोपादानकारणत्वानुपपत्तेः। शुक्त्यज्ञानं न रजतोपादानं शुक्त्यज्ञानत्वात् प्रसिद्धशुक्त्यज्ञानवत् , अज्ञानत्वात् निषेधत्वात् कुम्भाशानवत् , अद्रव्यत्वात् अन्योन्याभाववदिति प्रमाणानां सद्भावात् । ननु प्रपञ्चो मिथ्या उत्पत्तिमत्त्वात् यन्मिथ्या न भवति तदुत्पत्तिमन्न भवति यथा ब्रह्मस्वरूपमिति व्यतिरेकप्रयोगात् स्वेष्टसिद्धिर्भविष्यतीति चेन्न। ब्रह्मस्वरूपस्य प्रमाणगोचरत्वेन' दृश्यत्वेन मिथ्यात्वप्रसंगात् । प्रमाणगोचरत्वाभावे आश्रयहीनो दृष्टान्तः। तत्र साध्यसाधनव्यावृत्तेनिश्चयासंभवात्। ततो न व्यतिरेकादपि स्वेष्टसिद्धिः। एतेन प्रपञ्चो मिथ्या कार्यत्वात् कादाचित्कत्वात् जन्यत्वात् विनाशित्वात् पूर्वान्तवत्स्वात् आकाश को भी उत्पत्तियुक्त नही कहा जा सकता। इस अनुमान का उदाहरण भी सदोष है क्यों कि सीप में प्रतीत चांदी कभी उत्पन्न ही नही होती - उस के उपादान आदि कारण ही नही हैं - अतः उस को उत्पत्तियुक्त कहना भी अनुचित है । इस चांदी का उपादानकारण सीप का अज्ञान नही हो सकता यह पहले ही विस्तार से स्पष्ट किया है। उपर्युक्त अनुमान को वेदान्ती प्रकारान्तर से उपस्थित करते हैं - ब्रह्मस्वरूप के समान जो वस्तु मिथ्या नही होती वह उत्पत्तियुक्त नही होती, प्रपंच उत्पत्तियुक्त है अतः वह मिथ्या है। किन्तु इस अनुमान में कई दोष हैं। इस में ब्रह्मस्वरूप को दृष्टान्त माना है अतः वह प्रमाण से ज्ञात होगा - दृश्य होगा, तथा जो दृश्य है वह मिथ्या होता है ऐसा वेदान्तियों ने ही कहा है। अतः ब्रह्म भी मिथ्या होगा । इस दोष को दूर करने के लिए यदि ब्रह्म को प्रमाण से अज्ञात मानें तो दृष्टान्त निराधार होता है। अत: उत्पत्तियुक्त होने से प्रपंच को मिथ्या नही माना जा सकता। कार्य, १ ब्रह्मस्वरूपं प्रमाणगोचरं प्रमाणागोचरं वा प्रमाणगोचरमिति चेत् प्रमाणगोचरत्वे न दृश्यत्वेन मिथ्यात्वपसङ्गः। २ दृष्टान्ते ब्रह्मस्वरूपे। ३ यत्र मिथ्यात्वं नास्ति तत्रोत्पत्तिमत्वं नास्ति यथा ब्रम्हस्वरूपम् इत्यत्र साध्यसाधनव्यावृत्तेनिश्चयासंभवात् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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