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________________ १४६ विश्वतत्त्वप्रकाशः [ ४४ स्यैव नित्यानुभवत्वेन तस्य स्वसंवेद्यत्वाङ्गीकारे नित्यानुभववेद्यत्वसद्भावात् । तथा प्रपञ्चो धर्मी सत्यो भवतीति साध्यो धर्मः। अधिष्ठानयाथात्म्यप्रतिभासेऽपि प्रतिभासमानत्वात् यःसत्यो न भवति सोऽधिष्ठानयाथात्म्यप्रतिभासेऽपि प्रतिभासमानो न भवतीति यथा रज्जुसादिः'तथा चायं तस्मात् तथा । अथ प्रपञ्चप्रतिभासकाले अधिष्ठानयाथात्म्यप्रति भासाभावादसिद्धो हेतुरिति चेन्न । अधिष्ठानयाथात्म्यस्य सर्वदा प्रतिभाससद्भावात् । कुतः। नित्यानुभवरूपस्य ब्रह्मणोऽधिष्ठानरूपस्य नित्यस्वसंवेद्यत्वेन तद्याथात्म्यस्य नित्यप्रकाशसद्भावात् । तथा सत्यः प्रपञ्चः ब्रह्मस्वरूपत्वात् व्यतिरेके रज्जुसादिवत्। ननु प्रपञ्चस्य ब्रह्मरूपत्वमसिद्धमिति चेन्न । श्रुतिप्रमाणेन तस्य तत्स्वरूपत्वनिश्चयात् । तत् कथम्। 'सर्व वै खल्विदं ब्रह्म' (छान्दोग्य ३.१४.१ ), 'पुरुष एवेदं यद्भूतं से ज्ञात होता है और परब्रह्म स्वसंवेद्य है अतः दोनों में भेद है - यह कथन भी उचित नही। परब्रह्म का स्वरूप ही नित्य अनुभव है अतः परब्रह्म का स्वसंवेदन और नित्य अनुभव द्वारा जाना जाना एकही है। प्रपंच और परब्रह्म दोनों नित्य अनुभव से जाने जाते हैं अतः दोनों को समान रूप से सत्य होना चाहिए। प्रपंच के सत्य होने का प्रकारान्तर से भी समर्थन होता है। प्रपंच यदि असत्य होता तो प्रपंच के अधिष्ठान परम ब्रह्म का ज्ञान हो जाने पर प्रपंच का ज्ञान नही होता। रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प का ज्ञान नही होता अतः रस्सी को सत्य और सर्प को असत्य कहा जाता है। किन्तु परब्रह्म व नित्य अनुभव से ज्ञान-स्वसंवेदन सर्वदा विद्यमान होने पर भी प्रपंच की प्रतीति होती ही है - अतः प्रपंच असत्य नही हो सकता। उपनिषद्वाक्यों में कई जगह प्रपंच को ब्रह्मस्वरूप ही कहा है इस से भी प्रपंच के सत्य होने का समर्थन होता है। जैसे कि कहा है - 'यह सब ब्रह्म ही है; जो हुआ और जो होगा वह सब पुरुष ही है।' प्रपंच ब्रह्मस्वरूप है और ब्रह्मस्वरूप सत्य है अतः प्रपंच १ अधिष्ठानयाथात्म्यं किं परमब्रह्म एव । २ रज्जुः सर्पस्य अधिष्ठानयाथात्म्यभूता तस्याः प्रतिभासेपि सर्पः न प्रतिभासते । ३ प्रतिभासमानत्वात् सत्य एव । ४ परमब्रह्मणः। ५ नित्यज्ञानस्य । ६ यः सत्यो न भवति स ब्रह्मस्वरूपो न भवति यथा रज्जुसर्पादि ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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