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________________ -३८] प्रामाण्यविचारः १११ चेतनत्वात् अजडत्वात् स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्युदासाय परान. पेक्षत्वात् अनुभववत् अर्थावबोधरूपत्वात् व्यतिरेके पटादिवदिति' सांख्यं प्रति शानस्य स्वसंवेदनत्वसिद्धिः। ननु ज्ञानं स्वातिरिक्तवेदनवेद्यं वेद्यत्वात् कलशवदिति चेन। तस्यापि विचारासहत्वात् । तथा हि। धर्मिग्राहकक्षानं स्वसंवेद्यं परसंवेद्य वा। स्वसंवेद्यत्वे तेनैव हेतोर्व्यभिचारः। परसंवेद्यत्वेन तत्परस्यापि तथैवेत्यनवस्था स्यात् । आकांक्षापरिक्षयान्नानवस्थेति चेत् तर्हि यत्र क्वापि विश्रान्तिस्तच्चरमज्ञानस्याप्रतिप्रत्तिस्तद प्रतिपत्तौ द्विचरमादारभ्य धर्मिज्ञानपर्यन्तमप्रतिपत्तिरेव प्रसज्यते। तथा च धर्मिप्रतिपस्यभावादाश्रयासिद्धो हेत्वाभासः स्यात् । हेतुग्राहकस्याप्येवं विकल्पे हेतुरशातासिद्धोऽपि स्यात् । तस्मात् ज्ञानं स्वयंप्रकाशक शानत्वात् अव्यव अब नैयायिकों की आपत्तियों का विचार करते हैं। इन के मतानुसार कलश आदि जो वस्तुएं ज्ञेय हैं वे किसी दूसरे ज्ञान द्वारा जानी जाती हैं, ज्ञान भी एक ज्ञेय है अतः उस का ज्ञान किसी दूसरे ज्ञान को होगा – उसी को नही हो सकेगा। किन्तु यह आपत्ति ठीक नही है। जब किसी अनुमान में वादी धर्मी का वर्णन करता है या हेतु का प्रयोग करता है उस समय वह अपने इस धर्मि-ज्ञान या हेतुज्ञान को जानता है या नही ? यदि जानता है तो यह स्वसंवेदन से भिन्न नही है। यदि कहें कि वादी के इस ज्ञान का ज्ञाता कोई दूसरा है तो इस दूसरे के ज्ञान का ज्ञाता कोई तीसरा और तीसरे के उस ज्ञान का ज्ञाता कोई चौथा मानना होगा - और यह अनवस्था दोष होता है। फिर यह सरलसी बात है कि जो अपने धर्मि-वर्णन या हेत-प्रयोग को नही जानता वह अनुमान का प्रयोग नही कर सकेगा। अतः ज्ञान १ यत् स्वसंवेद्यं न भवति तत् चेतनं न भवति । २ ज्ञानान्तरवेद्यम् । ३ धर्मिग्राहकज्ञानस्य वेद्यत्वेऽपि स्वातिरिक्तवेदनवेद्यत्वाभावः। ४ यतः परवेद्यं कथ्यते ततः अप्रतिपत्तिः अपरिच्छित्तिः। ५ हेतुग्राहकं ज्ञावं स्वसंवेद्यं परसंवेद्यं वा स्वसंवेबले तेनैव हेतोव्यभिचारः इत्यादि सर्व ज्ञेयम् ।: ६ स्वस्य प्रकाशकम् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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