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________________ ९८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [३५चेन्न । अश्वत्थामा वेदार्थशः त्रिलोचनत्वात् प्रसिद्धत्रिलोचनवत् रुद्रावतारत्वात् समन्तरुद्रावतारवदिति तस्य वेदार्थपरिज्ञानसिद्धेः । अथ तद्वाक्यार्थपरिशानस्य तत्फलकथनमर्थवाद' इति चेत् तर्हि अश्वमेधयागस्यापि तत्कथनमर्थवाद एवास्तु विशेषाभावात् । द्वयोर प्यर्थवादत्वेन बाधितविषयत्वं सिद्धम्। [३५. वेदानां हिंसाहेतुत्वम् । ] तथा न वेदाः प्रमाणं ब्राह्मणादिवविधायकत्वात् तुरुष्कशास्त्रवत् । अथ वेदानां ब्राह्मणादिवधविधायकत्वाभावादसिद्धो हेत्वाभास इति चेन्न । 'ब्रह्मणे ब्राह्मणमालमेत क्षत्रायं राजन्यं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शुद्धं तमसे तस्करम्' इत्यादिना ब्राह्मणादिवधविधानात् । नन्वत्र ब्रह्मणो यागाय ब्राह्मणमालभेत इति कोऽर्थः ब्राह्मणं स्पृशेदित्यर्थ इति चेत् तर्हि 'श्वेतमजमालभेत भूतिकामः' इत्यत्रापि भूतिकामः श्वेतमजं स्पृशेदित्यर्थ एव स्यात् । अत्र हननार्थाङ्गीकारे तत्रापि तथा स्याद् विशेषाभावात् । अक्षरशः सत्य नही है। किन्तु ऐसा मानने पर यज्ञ करने का फल भी अक्षरशः सत्य है यह कैसे निश्चय होगा ? अतः इस पूरे कथन में परस्परविरोध दूर नही किया जा सकता। ३५. वेदों में हिंसा का विधान-वेद इस लिये भी अप्रमाण हैं कि उन में तुरुष्कों के समान ब्राह्मण आदि के वध करने का विधान है - कहा है - 'ब्रह्मा के लिये ब्राह्मणका वध करे, क्षत्र के लिये क्षत्रिय का, मरुतों के लिये वैश्य का, तप के लिये शद्र का तथा तम के लिये चोर का वध करे। ' इस मन्त्र में ब्राह्मण के वध का तात्पर्य ब्राह्मण को स्पर्श करना है ऐसा कहा जाता है किन्तु यह स्पष्ट ही गलत है। यदि वध का अर्थ स्पर्श करना हो तो 'ऐश्वर्य को इच्छा हो तो सफेद बकरे का बलि दे' यहां पर भी बकरे को स्पर्श करने से विधि क्यों नही पूरा होता ! १ स्तुतिमात्रमेव न सत्यम् । २ वेदवाक्यार्थपरिज्ञानस्य अश्वमेधयागस्य च द्वयोः । ३ छेदनं कुर्यात् । ४ ब्रह्मनिमित्तम् । ५ संपदार्थम् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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