SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४ विश्वतत्त्वप्रकाशः [३४निश्चयात् । तदप्यन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभाव इति न्यायात् । व्यञ्जकव्यापारान्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यङ्ग्यो'पलब्ध्यनुपलब्धिनियमो नास्त्येव प्रदीपव्यापारान्वयव्यतिरेकाभ्यां घटोपलब्ध्यनुपलब्धिनियमाभाववदिति। अथ ताल्वादीनां व्यापारस्य व्यञ्जकत्वेऽपि नियमेन शब्दोपलम्भकत्वं शब्दस्य नित्यत्वात् सर्वगतत्वान्न विरुद्धमिति चेन्न नित्यत्वस्य प्रागेव प्रत्युक्तत्वात् सर्वगतत्वस्यापि प्रमाणबाधितत्वाच । तथा हि । शब्दः सर्वगतो न भवति सामान्यविशेषवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात्। अस्मदादिबाह्येन्द्रियेण सर्वात्मना उपलभ्यमानत्वात् पटादिवदिति । तस्मात् शब्दस्य नित्यताभावात् तत्संदर्भस्य वेदस्यापि नित्यत्वाभावेन अपौरुषेयत्वाभावात् वेदाः प्रमाणम् अपौरुषेयत्वादित्यसिद्धो हेत्वाभासः स्यात् ।। [३४. वेदानां बाधितविषयत्वम् । ] ततो न वेदाः प्रमाणम् अनाप्तोक्तत्वादुन्मत्तवचनवत् । अथ मीमांसकमते वेदस्यानाप्तोक्तत्वात् तथास्तु। नैयायिकादीनां तु मते महेश्वरादिसर्वशप्रणीतत्वाद् वेदस्य प्रामाण्यं भविष्यति। शब्द उत्पन्न होता है, क्रिया न हो तो शब्द उत्पन्न नही होता। अतः तालु आदि की क्रिया को शब्द का उत्पादक ही मानना चाहिए । व्यक्त होनेवाली तथा व्यक्त करनेवाली वस्तुओं में नियत अन्वयव्यतिरेक नही पाया जाता - दीपक हो तो घट होता है, दीपक नही हो तो घट नही होता यह कहना सम्भव नही है। शब्द नित्य और सर्वगत है अतः तालु आदि की क्रिया होने पर नियमतः शब्द व्यक्त होता है यह कहना भी उचित नही। शब्द नित्य नही यह अभी बतला रहे हैं । तथा शब्द सर्वगत भी नही है क्यों कि वह बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात होता है । इस प्रकार शब्द की अनित्यता स्पष्ट होती है। तदनुसार शब्दसमूहरूप वेद भी पौरुषेय व अनित्य सिद्ध होते हैं। अतः वेद अपौरुषेय अतएव प्रमाण हैं यह कहना उचित नही है। ..३४. वेदों का बाधित विषयत्व-वेद अप्रमाण हैं क्यों कि वे आप्त पुरुष - सर्वज्ञ – द्वारा प्रणीत नही हैं। इस के उत्तर में प्रतिपक्षी कहते हैं कि मीमांसकमतानुसार वेद सर्वज्ञप्रणीत न हों, किन्तू M १ घटादि । २ निराकरणात् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy