SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [३३भ्रान्तत्वं तत् प्रत्यभिज्ञानाभ्रान्तो ततः शब्दस्य नित्यत्वसिद्धिरिति । अथ अन्येनानुमानेन चेत् तत् कीदृशम्। नित्यः शब्दः अमूर्तत्वात् आकाशवदिति चेन्न । हेतोः क्रियाभिर्व्यभिचारात् । अथ तत् परिहारार्थम् अमूर्तद्रव्यत्वादित्युच्यते तथापि प्रतिवाद्यसिद्धो हेत्वाभासः। कथम् । नैयायिकादीनो मते शब्दस्याकाशगुणत्वेन द्रव्यत्वासिद्धेः। जैनैस्तु मूर्तद्रव्यत्वेनाङ्गीकाराच्च। अथ तैरप्रमाणमूलत्वेनाङ्गीकृतमिति चेन । तत्र प्रमाणसद्भावात् । शब्दो मूर्तः स्पर्शवत्त्वात् वातादिवदिति । अथ शब्दस्य स्पर्शवत्त्वमसिद्धमिति चेन्न । शब्दः स्पर्शवान् संयोगविभागान्यत्वे सति कांस्यपात्रादौ नादोत्पादकत्वात् कोणादिवदिति' मूर्तद्रव्यापनोदित्वात् जलादिवदिति शब्दस्य स्पर्शवत्वसिद्धेः। न चायं हेतुरसिद्धः निःसाणादिमहाशब्देन बहुपदात्यास्फोटनेन च प्रासादप्राकारादीनां विनिपातदर्शनात्। तब ‘शब्द नित्य है अतः उस का प्रत्यभिज्ञान भ्रमरहित है ' यह कहना कैसे संभव है ? यह तो परस्पराश्रय होगा। अतः शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता है। शब्द आकाश के समान अमर्त है अतः नित्य है यह अनुमान उचित नही - क्रियाएं अमर्त होती हैं किन्तु नित्य नही होतीं। इस दोष को दूर करने के लिए इसो अनुमान का रूपान्तर प्रयुक्त करते हैं - शब्द अमूर्त द्रव्य है अतः नित्य है। किन्तु यह भी सदोष है - नैयायिकों के मत से शब्द गुण है, द्रव्य नही तथा जैनों के मत से शब्द द्रव्य तो है किन्तु मूर्त हैअतः शब्द अमर्त द्रव्य है यह कथन विवादास्पद है । शब्द के मूर्त द्रव्य होने का प्रमाण यह है कि वह स्पर्शयुक्त है। कांसे के पात्र पर शब्द का आघात होने पर वैसे ही नाद उत्पन्न होता है जैसे किसी कोण ( वीणा बजाने का दण्ड ) के आघात से उत्पन्न होता है। शब्द से पानी जैसे मूर्त द्रव्य में हलनचलन उत्पन्न होता है। निसानादि वाद्यों के प्रचण्ड नाद से तथा पैदल सेना के पदाघात के नाद से प्रासाद गिरते हुए देखे गए हैं । इन सब बातों से शब्द का स्पर्शयुक्त तथा मूर्त होना स्पष्ट है। १ कोणो वीणादिवादनम् । २ चलनक्रियाकारकत्वात् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy