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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [२५ तथा भूभुवनमकर्तृकं नित्यत्वादाकाशवदिति च । अथ भूभुवनादीनां नित्यत्वमसिद्धमिति चेन्न । वीतं भूभुवनादिकं धर्मी नित्यं भवतीति साध्यो धर्मः अस्मदादिप्रत्यक्षानवच्छिन्न महापरिमाणाधारत्वात् आकाशवदिति नित्यत्वसिद्धेः। ननु ब्राह्ममानेन२ वर्षशतान्ते महेश्वरसंजिहीर्षया तनुकरणभुवनादिकसकलकार्यविनाशे पृथिव्यप्तेजोवायुपरमाणवो धर्माधर्मसंस्कारसहितात्मानः दिक्कालाकाशमनांसि तिष्ठन्तीति भुवनादीनां नित्यत्वमसिद्धम् । तथा च प्रयोगः। सकलात्मगतादृष्टानि कदाचिनिरुद्धवृत्तानि अदृष्टत्वात् सुषुप्तादृष्टवदिति चेन्न। हेतोः सिद्धसाध्यत्वेनाकिंचित्करत्वात्। कथम् । काम्यनिषिद्धाद्यनुष्ठानेनोपार्जितसकलात्मगतादृष्टानां स्वफलयोग्यदेशकालादिप्राप्तिपर्यन्तं निरुद्धवृत्तित्वाङ्गीकारात् । सुषुप्तादृष्टस्य निरुद्ध पृथ्वी आदि का कोई कर्ता नही है क्यों कि आकाश के समान वे भी नित्य हैं । पृथ्वी आदि को नित्य मानने का कारण यह है कि वे इतने महान् आकार के हैं जिस का हमें प्रत्यक्षादि के द्वारा ठीक निश्चय नही हो सकता। इसके प्रतिकूल न्यायदर्शन का मत है कि ब्रह्मदेव की गणना से सौ वर्ष बीतने पर ईश्वर अपनी संहारेच्छा से समस्त कार्योंका विनाश करता है उस समय सिर्फ पृथ्वी, अप, तेजस् तथा वायुके परमाणु, धर्म और अधर्म के संस्कार से युक्त आत्मा, दिशा, काल, आकाश और मन ये मूलभूत द्रव्य ही बचते हैं - बाकी सभी कार्यों का विनाश होता है अतः पृथ्वी आदि को नित्य मानना उचित नही । इस मत के समर्थन में अनुमान भी दिया जाता है - सभी आत्माओं के अदृष्ट (पुण्य-पाप) किसी समय निरुद्ध होते हैं। सोए हुए मनुष्य का अदृष्ट निरुद्ध होता है उसी प्रकार सभी आत्माओं के अदृष्ट भी किसी समय निरुद्ध होते हैं । ( यह अदृष्ट निरुद्ध होने का समय ही प्रलयकाल है जिस में ईश्वर द्वारा उपर्युक्त रीति से जगत् का संहार होता है। किन्तु २ अज्ञात । २ संहारकालस्य मानेन । ३ यदा ईश्वरः सकलकार्यविनाशं करोति तदा पृथ्व्यादीनां परमाणवः धर्मादिसंस्कृता आत्मानः दिगादीनि चत्वारि न नश्यन्ति एतानि तिष्ठन्त्येव इति नैयायिकमतम् । ४ काम्यं यज्ञः निषिद्धं हिंसादिकं ते आदिर्यस्य तच्च तत् अनुष्ठानं च। ५ अदृष्टानां स्वफलयोग्यो देशः स्वफलयोग्यः कालः यावन्न प्राप्नोति तावददृष्टस्य निरूद्धवृत्तित्वमेवास्ति इत्यस्मा भिरपि अङ्गीक्रियते। ६ भस्माकं जैनानाम् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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