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________________ ३८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [१८एतस्माच्चार्वाकप्रमाणप्रसिद्धव्याप्तिकात् तर्काच्चार्वाकस्याप्रमितः सर्वज्ञ आपाद्यत इति सर्व सुस्थम् । [१८. भदृष्टस्य प्रत्यक्षविषयत्वम् । ] मीमांसकैस्तु धर्मशत्व'निषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद् विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते॥ (तस्वसंग्रह का. ३१२८) इत्यभिहितत्वात् तन्मते धर्माधर्मसाक्षात्कार्येव विप्रतिपन्नो नान्यः ततः स एव प्रसाध्यते । अदृष्टं कस्यचित् प्रत्यक्ष प्रमेयत्वात् सुखादि. वदिति । अत्रापि प्रमेयत्वं च स्यात् प्रत्यक्षत्वं च मा भूत् को विरोध इति चेत् न अदृष्टस्य प्रत्यक्षत्वाभावे प्रमेयत्वानुपपत्तेः । कुत इति चेत् अनुमानोपमानार्थापत्यभावाविषयत्वात् । कथम् । सिद्ध करना यही तर्क है । चार्वाकों को अमान्य सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए हम ने यह तर्क प्रयुक्त किया है। १८. अदृष्टपर विचार-मीमांसक मत में पुरुष के धर्म अधर्म का ज्ञान होना सम्भव नही माना है - जैसा कि कहा है- 'यहां केवल धर्मज्ञ होने का निषेध इष्ट है, पुरुष बाकी सब जाने तो उसे कौन रोकता है ?' अतः अब धर्म-अधर्म का ज्ञान पुरुष को होता है यह सिद्ध करते हैं । अदृष्ट ( धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप ) प्रमेय है अतः वह किसी पुरुष के प्रत्यक्ष का विषय होता है - उदाहरणार्थ सुख आदि जो प्रमेय हैं वे सब किसी के प्रत्यक्ष का विषय होते हैं। अदृष्ट प्रमेय है और प्रत्यक्ष विषय नही है यह मानने में क्या आपत्ति है यह प्रश्न हो सकता है। इस का उत्तर यह है कि अदृष्ट अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव का विषय नही है यह मीमांसकों ने ही कहा है - ' सब प्रमाताओं १ सर्वज्ञ । २ पदार्थादि। ३ मीमांसकमते। ४ संदेहापन्नः अप्रतिपन्नः। ५ सकलपदार्थसाक्षात्कारी विप्रतिपन्नो न। ६ धर्माधर्मसाक्षात्कारी यो विप्रतिपन्नः स एव प्रसाध्यते । ७ मीमांसको वदति भो जैन । ८ भदृष्टम् एतेषां प्रमाणानां विषयो न ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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