SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [१७इति स्वयमभिधानात् । आत्मनः सकलपदार्थग्रहणयोग्यत्वमङ्गीकृतं परैरिति विशेषणासिद्धोऽपि न भवति । अथास्यापि केवलव्यतिरेकित्वेन प्रामाण्याभावात् कथं सर्वशावेद कत्वम् । तथा हि । केवलव्यतिरेकि प्रमाणं न भवति सपक्षे सत्त्वरहिततत्वात् विरुद्धवदितिचेत् तत्रापि सपक्षग्रहणसत्त्वस्मरणयोरभावे सपक्षे सत्वरहितत्वस्य ज्ञातुमशक्यत्वादशातासिद्धो हेत्वाभासः । सपक्षग्रहणसत्वस्मरणयोः सद्भावे वा सपक्षे सत्त्वस्य निश्चितत्वात्। प्राभाकरपक्षेऽपि सत्त्वरहितत्वं नाम सपक्षस्वरूपमात्रमेव तच्चात्र नास्तीति स्वरूपासिद्धत्वं हेतोः स्यात् । तस्मात् केवलव्यतिरेक्यनुमानमपि प्रमाणं भवत्येव व्याप्तिमत्पक्षधर्मत्वात् धूमानुमानवत् । ततः सर्वज्ञसिद्धिर्भवत्येव ॥ तथा सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् करतलसमस्त पदार्थों का ग्रहण करने की योग्यता आत्मा में है और वह जब दोषरहित होता है तब सर्वज्ञ होता है यह स्पष्ट हुआ। जो सर्वज्ञ नही होता वह निर्दोष नही होता ऐसा यह अनुमान केवलव्यतिरेकी है अतः प्रमाण नही है ऐसा एक आक्षेप है। विरुद्ध हेत्वाभास में सपक्ष में हेतु का अस्तित्व नही होता उसी प्रकार केवलव्यतिरेकी अनुमान में भी सपक्ष में हेतु का अस्तित्व नही होता ऐसा यह आक्षेप है । यहां भी केवलान्वयी अनुमान के समान ही उत्तर समझना चाहिये - सपक्ष का ज्ञान हो और उस में अस्तित्व का विचार हो तब तो 'सपक्ष में अस्तित्व नही' यह कहना सम्भव होगा। किन्तु केवल - व्यतिरेकी अनमान में सपक्ष का अस्तित्व ही नही होता अतः उस में हेतु के अस्तित्व का प्रश्न ही नही उठता। अतः केवलव्यतिरेकी अनुमान भी प्रमाण मानना योग्य है। सर्वज्ञ का साधक दूसरा अनुमान इस प्रकार है - जो पदार्थ प्रमेय हैं वे किसी पुरुष के प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय होते हैं, सूक्ष्मादि पदार्थ भी प्रभेय हैं अतः उन सब का प्रत्यक्ष ज्ञान किसी पुरुष को होता है। इस अनुमान में चार्वाकों ने आक्षेप किया था कि जो प्रमेय होते १ मीमांसकैः। २ मीमांसकः। ३ कश्चित् पुरुषः सकलपदार्थसाक्षात्कारी तग्रहणयोग्यत्वे सत्यपगताशेषदोषत्वात् अयं हेतुः केवलव्यतिरेकी। ४ कश्चित् पुरुषः सकलपदार्थसाक्षात्कारीत्यनुमानस्य । ५ भवदुक्ते हेता । ६ केवलव्यतिरेकिणि।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy