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________________ -१४] सर्वज्ञसिद्धिः २७ शासिष्टेत्यसावप्राक्षीत् । तन्निरूप्यते । ज्ञानवैराग्यं क्वचित् परमप्रकर्षमवाप्नोति तरतमभावेन प्रवर्धमानत्वात् . य एवं स एवं यथा सुवर्णवर्णः२, तथा च ज्ञानवैराग्यं तस्मात् तथे त्यनुमादशासिष्म । पुरुषत्वमात्रस्य सर्वज्ञासर्वक्षयोः समानत्वेनानैकान्तिकत्वात् न ततः स्वेष्टसिद्धिः। अथ सर्वज्ञाभावात् पुरुषत्वं किंचिज्ज्ञैरेव व्याप्तमिति चेन्न । तदभावस्य केनापि प्रमाणेनानिश्चितत्वात् । एतेन यदप्यनुमानद्वयमगादीत् विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति शरीरित्वात् पाण्यादिमत्वाच्च रथ्यापुरुषवदिति तन्निरस्तम् । उक्तदोषस्यावापि समानत्वात्। _____ अर्थ इदमनुमानं सर्वज्ञाभावं निर्मिमीते। विविदापन्नः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति वक्तृत्वात्, रथ्यापुरुषवदिति चेत् तत्रापिदृष्टादृष्टयोर१२विरुद्धवक्तृत्वं साधनं, तविरुद्धत्वं हेतुः, वक्तृत्वमानं वा लिङ्गमिति अनुमान से समर्थन करते हैं – ज्ञान और वैराग्य में तरतमभाव होता है ( कहीं कम और कहीं अधिक प्रमाण होता है ) अतः किसी पुरुष में उन का परम उत्कर्ष विद्यमान होता है । उदाहरणार्थ-सुवर्ण का रंग कहीं फीका और कहीं उजला होता है और कहीं पूर्णतः उज्ज्वल सुवर्ण भी विद्यमान होता है। इस तरह यह स्पष्ट हुआ कि सिर्फ पुरुष होना सर्वज्ञ होने में बाधक नही है - पुरुष सर्वज्ञ भी हो सकते हैं, और असर्वज्ञ भी हो सकते हैं, इसी तरह शरीरयुक्त होना तथा हाथ पांव आदि से युक्त होना ये भी सर्वज्ञ होने में बाधक नही हैं। ___ यह पुरुष सर्वज्ञ नही है क्यों कि यह वक्ता है ( उपदेश देता है) यह अनुमान मीमांसक प्रस्तुत करते हैं किन्तु यह उचित नही। सिर्फ वक्ता होना सर्वज्ञ होने में बाधक नही है। यदि वह वक्ता दृष्ट या अदृष्ट ( प्रत्यक्ष से या परोक्ष अनुमानादिप्रमाण से ज्ञात ) के विरुद्ध उपदेश देता है तब वह सर्वज्ञ नही हो सकता। किन्तु यदि उस का उपदेश दृष्ट और अदृष्ट के विरुद्ध नही है - अनुकू ल है तो वह सर्वज्ञ १, २ यथा सुवर्णवर्णः परमप्रकर्षमाप्नोति। ३ तरतमभावेन प्रवर्धमानम् । ४ परमप्रकर्षमवाप्नोति । ५ वयं जैनाः। ६ मीभांसकः । ७ मीमांसकः । ८ तद्विचार्य ते तत्र रागद्वेषाज्ञानरहितशरीरित्वं हेतुः तत्सहित । शरीरित्वं साधनं शरीरित्वमात्रं वा लिङ्ग मिति । पाण्यादिमत्वादिति हेतोः तथा ज्ञातव्यम् ९ मीमांसकः । १० करोति । ११ जनाः। १२ प्रत्यक्षरोक्षयोः।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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