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________________ निःक्षपपरिच्छेदः बुद्धिः, भक्तिपरिणतबुद्धीनां नमस्करणादिक्रिया, तत्फलं च पुत्रोत्पत्त्यादिकं संवीक्ष्यते, न तथा नामेन्द्रे द्रव्येन्द्रे चेति ताभ्यां तस्य भेदः । द्रव्यमपि भावपरिणामिकारणत्वान्नामस्थापनाभ्यां भिद्यते, यथा ह्यनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यम्, उपयुक्तत्वकाले उपयोगलक्षणस्य भावस्य कारणं भवति, यथा वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रः सद्भावेन्द्ररूपायाः परिणतेः, न तथा नामस्थापनेन्द्राविति । नामापि स्थापनाद्रव्याभ्यामुक्तवैध ादेव भिद्यत इति। दुग्धतक्रादीनां श्वेतत्वादिनाऽभेदेऽपि माधुर्यादिना भेदवन्नामादीनां केनचिद्रूपेणाभेदेऽपि रूपान्तरेण भेद इति स्थितम् । - ननु भाव एव वस्तु, किं तदर्थशून्यैर्नामादिभिरिति चेत्, न; नामादोनामपि वस्तुपर्यायत्वेन सामान्यतो भावत्वानतिक्रमात्, अविशिष्ट इन्द्रवस्तुन्युच्चरिते नामादिभेदचतुष्टयपरामर्शनात् प्रकरणादिनव विशेषपर्यवसानात् । भावांगत्वेनैव वा नामादीनामुपयोगः, जिननामजिनस्थापनापरिनिर्वृतमुनिदेहदर्शनाद्भावोल्लासानुभवात् । केवलं नामादित्रयं भावोल्लासेऽनकान्तिकमनात्यन्तिकं च कारणमिति ऐकाभक्त जन नमस्कार आदि क्रिया करते हैं और उस क्रियाका फल पुत्रलाभ आदि भी देखा जाता है । यह मब बातें न नाम-इन्द्र में होती हैं और न द्रव्य-इन्द्र में । इन विशेषताओं के कारण नाम और द्रव्यसे स्थापना निक्षेप भिन्न है। अब द्रव्यनिक्षेपको लीजिए । वह भावका परिणाभी कारण होनेसे नाम एवं स्थापनासे भिन्न है । जैसे-उपयोगशून्य वक्ता द्रव्य कहलाता है मगर जब वही उपयुक्त होता है तो उपयोग रूप भावका कारण बन जाता है। अथवा जैसे साधुका जीव द्रव्येन्द्र है और वह भाव-इन्द्ररूप पर्यायका कारण होता है अर्थात् द्रव्येन्द्ररूप साधुजीव ही आगे जाकर भावेन्द्ररूप पर्यायमें परिणत हो जाता है। मगर नामेन्द्र या स्थापनेन्द्र में यह बात नहीं होती। स्थापना और द्रव्यकी जो विशेषताएं बतलाई गई हैं, उनके कारण नाम भी इन दोनोंसे भिन्न है । अतएव यह सिद्ध हुआ कि जैसे दूध और तक्रमें श्वेतता समान होनेपर भी माधुर्य आदि गुणोंसे भेद है, उसी प्रकार किन्हीं बातोंसे अभेद होनेपर भी नाम, स्थापना और द्रव्यमें दूसरे रूपसे भेद है। ___ शंका-एक मात्र भाव ही वस्तु है, भावरूप अर्थसे शून्य नाम आदि तीनोंको स्वीकार करनसे क्या लाभ? समाधान-नाम आदि भी वस्तुके ही पर्याय हैं, अतएव साधारणतया उनमें भी भाव'पन है । जब कोई ‘इन्द्र' ऐसा सामान्यपद उच्चारण करता है तब पहले तो नामादि चारोंका ही खयाल आता है । बादमें प्रकरण आदिसे विशेषका ज्ञान होता है। अथवा यही कहना चाहिए कि भावके कारणके रूप में ही नामादि तीनोंका उपयोग होता है, क्योंकि 'जिन' के नाम, 'जिन' की स्थापना और मृत मुनिके देह (द्रव्य) के दर्शनसे भाव उल्लासका अनुभव होता है। हाँ, नामादि तीनों भावके उल्लासमें ऐकान्तिक और आत्यन्तिक कारण नहीं हैं। इसी कारण
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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