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________________ नयपरिच्छेदः ६३ इतिमहच्छाशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दा एव, देव एनं देयात्, यज्ञ एनं देयादिति । संयोगिद्रव्यशब्दः समवाय ( यि) द्रव्यशब्दाश्चाभिमताः क्रियाशब्दा एव दण्डोऽस्थास्तीति दण्डो, विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यस्तिक्रियाप्रधानत्वात् । पञ्चतयी तु `शब्दानां व्यवहारमात्रात्, न तु निश्चयादित्ययं नयः स्वीकुरुते । एतेष्वाद्याश्चत्वारः प्राधान्येनार्थगोचरत्वादर्थनयाः अन्त्यास्तु त्रयः प्राधान्येन शब्दगोचरत्वाच्छन्नघाः । तथा विशेषग्राहिणोऽपतनयाः, सामान्यग्राहिणश्चानपितनयाः । तत्रानपि तनयमते तुल्यमेव रूपं सर्वेषां सिद्धानां भगवताम् । अर्पितनयमते त्वेक द्वित्र्यादिसमयसिद्धाः स्वसमानसमयसिद्धरेव तुल्या इति । तथा, लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहारनघः, यथा पञ्चस्वपि वर्णेषु भ्रमरे सत्सु श्यामो भ्रमर इति व्यप'देशः | तास्विकार्थाभ्युपगमपरस्तु निश्चयः, स पुनर्मन्यते पञ्चवर्णो भ्रमरः, बाबरस्कन्धत्वेन तच्छरीरस्य पञ्चवर्णपुद्गलैनिष्पन्नत्वात्, शुक्लादीनां च न्यग्भूतत्वेनानुपल कहा जाता है । ( ३ ) 'देवदत्त' या 'यज्ञदत्त' आदि यदृच्छाशब्द भी क्रियाशब्द ही हैं-देव जिसे दे या यज्ञ जिसे दे अर्थात् देव या यज्ञ द्वारा जो दिया गया हो वह देवदत्त या यज्ञदत्त कहलाता है । ( ४ ) संयोगिद्रव्यशब्द और ( ५ ) समवायिद्रव्यशब्द भी क्रियाशब्द ही हैं, जैसे 'दण्डी' और 'विषाणी' शब्द । क्योंकि इनमें भी दण्ड और विषाणके 'होने' क्रियाकी प्रधानता है । शब्दों के जो उपर्युक्त पाँच प्रकार माने जाते हैं, वह इस नयके अभिप्रायसे व्यवहार मात्र है, निश्चयसे पाँच भेद नहीं हैं । इन सात नयों में आदिके चार अर्थनय हैं क्योंकि वे प्रधानरूपसे अर्थ (पदार्थ) के संबंध में ही विचार करते हैं और अन्तिम तीन नय शब्दनय हैं क्योंकि वे मुख्य रूपसे शब्दके संबंध में विचार करते हैं । आन्यान्य दृष्टियोंसे नयोंके दूसरे प्रकारसे भी भेद किये गये हैं । जैसे - विशेषग्राही अर्पितनय और सामान्यग्राही अनर्पितनय कहलाते हैं । अनर्पितनयके अभिप्रायसे सब सिद्धोंका स्वरूप समान है । अर्पितनय के मत से एकसमयसिद्धों, द्विसमयसिद्धों या त्रिसमयसिद्धोंका अर्थात् समानसमयके सिद्धों का स्वरूप ही समान है, विभिन्न समय सिद्धों का स्वरूप समान नहीं है । तथा लोकप्रसिद्ध अर्थका अनुभव करनेवाला अर्थात् लोकप्रसिद्धिका अनुकरण करके वस्तुका कथन करनेवाला नय व्यवहारनय कहलाता है । जैसे भ्रमरमें पाँचों वर्ण होने पर भी भ्रमरको श्याम कहना । तात्त्विक पदार्थको स्वीकार करनेवाला नय निश्चय नय कहलाता है । निश्चयनयकी मान्यता के अनुसार भ्रमरमें पाँचों वर्ण विद्यमान हैं, क्योंकि उसका शरीर बादर · स्कंध होने के कारण पाँचों वर्णोंके पुद्गलोंसे बना है । किन्तु शुक्ल आदि अन्य वर्णवाले पुद्- गल कम होनेसे वे हमारी प्रतीतिनें नहीं आते ।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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