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________________ ४८ जैन तर्क भाषा इति कृत्तिकोदयः पूर्वचरो हेतुः शकटोदयं गमयति । कश्चित् उत्तरचरः यथोदगाद्धरणिः प्राक्, कृत्तिकोदयादित्यत्र कृत्तिकोदयः, कृत्तिकोदयो हि भरण्युदयोत्तरचरस्तं गयमतीति कालव्यवधानेनानयोः कार्यकारणाभ्यां भेदः । कश्चित् सहचरः, यथा मातुलिंग रूपवद्भवितुमर्हति रसवत्तान्यथानुपपत्तेरित्यत्र रसः, रसो हि नियमेन रूपसहचरितः, तदभावेऽनुपपद्यमानस्तद्गमयति, परस्परस्वरूपपरित्यागोपलम्भ-पौर्वापर्याभावाभ्यां स्वभावकार्यकारणेभ्योऽस्य भेदः। एतेषूदाहरणेषु भावरूपानेवाग्न्यादीन् साधयन्ति धूमादयो हेतवो भावरूपा एवेति विधिसाधकविधिरूपास्त एवाविरुद्धोपलब्धय इत्युच्यन्ते। द्वितीयस्तु निषेधसाधको विरुद्धोपलब्धिनामा। स च स्वभावविरुद्धतव्याप्याद्युपलब्धिभेदात् सप्तधा । यथा नास्त्येव सर्वथा एकान्तः, अनेकान्तस्योपलम्भात् । नास्त्यस्य तत्त्वनिश्चयः, तत्र सन्देहात् । नास्त्यस्य क्रोधोपशान्तिः, वदनविकारादेः । अतएव कृत्तिकोदय पूर्वचर हेतु है और शकटोदयका ज्ञापक है । ५- उत्तरचर हेतु- भरणी नक्षत्रका उदय हो चुका है, क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है । यहाँ 'कृत्तिकोदय' उत्तरचर हेतु है और वह भरणी नक्षत्रके उदयका ज्ञापक है । पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओंमें कालका व्यवधान पाया जाता है, किन्तु कार्य और कारणमें व्यवधान नहीं होता । पूर्वक्षणवर्ती कारण और उत्तरक्षणवर्ती कार्य होता है, अतएव कार्यहेतु और कारणहेतुसे यह भिन्न है। ६-सहचरहेतु, यथा- यह बिजौरा रूपवान् है, क्योंकि रसवान् है । 'रस' सहचरहेतु है और रूपके साथ ही होनेसे रूपका गमक है। ___ सहचर वस्तुओंका स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है अतएव सहचरहेतुको स्वभावहेतुमें सम्मिलित नहीं कर सकते और उनमें पौर्वापर्यका अभाव होता है अर्थात् वे कार्य-कारणकी तरह आगे-पीछे नहीं होते, इस कारण उसे कार्य-कारण हेतुमें भी अन्तर्गत नहीं कर सकते । ___ ऊपर जो छह उदाहरण दिखलाए गए हैं, उनमें धूम आदि हेतु स्वयं सद्भावरूप हैं और सद्भावरूप अग्नि आदिको ही सिद्ध करते हैं, अतएव वे विधिसाधक और विधिरूप हैं। यह 'अविरुद्धोपलब्धि' भी कहलाते हैं । हेतुका दूसरा प्रकार विरुद्धोपलब्धि है। यह निषेधसाधक होता है । इसके स्वभाव विरुद्धोपलब्धि, व्याप्यविरुद्धोपलब्धि आदि सात भेद हैं । यथा १-सर्वथा एकान्तका अभाव है, क्योंकि अनेकान्तकी उपलब्धि होती है। यह विरुद्ध स्वभावोपलब्धि हेतु है, क्योंकि 'अनेकान्त' हेतु प्रतिषेध्य एकान्तसे स्वभावसे ही विरुद्ध है। २-इस पुरुषको तत्त्वका निश्चय नहीं है, क्योंकि तत्त्वमें सन्देह है। यह विरुद्ध व्याप्योपलब्धि हेतु है, क्योंकि 'तत्त्वसन्देह' हेतु प्रतिषेध्य तत्त्वनिश्चयसे विरुद्ध अनिश्चयका व्याप्य है । ३-इस पुरुष में क्रोधका उपशम नहीं है, क्योंकि इसके (चेहरे) पर विकार है। यह विरुद्ध कार्योपलब्धि हेतु है, क्योंकि 'वदनविकार' क्रोधके उपशमसे विरुद्ध अनुपशमका कार्य है। ४-इसका
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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