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________________ जैन तर्क भाषा वचनादेव परप्रतिपत्तेः, प्रतिबन्धस्य तर्कत एव निर्णयात्, तत्स्मरणस्यापि पक्षहेतुदर्शनेनैव सिद्धः, असमर्थितस्य दृष्टान्तादेः प्रतिपत्त्यनंगत्वात्तत्समर्थनेनै वान्ययासिद्धेश्च। समर्थनं हि हेतोरसिद्धत्वादिदोषानिराकृत्य स्वसाध्येनाविनाभावसाधनम्, तत एव च परप्रतीत्युपपत्तौ किमपरप्रयासेनेति ? । मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तादिप्रयोगोऽप्युपयुज्यते, तथाहि-यः खलु क्षयोपशमविशेषादेव निर्णीतपक्षो दृष्टान्तस्मार्यप्रतिबन्धग्राहकप्रमाणस्मरणनिपुणोऽपरावयवाभ्यूहनसमर्थश्च भवति, तं प्रति हेतुरेव प्रयोज्यः। यस्य तु नाद्यापि पक्षनिर्णयः, तं प्रति पक्षोऽपि । यस्तु प्रतिबन्धग्राहिणः प्रमाणस्य न स्मरति, तं प्रति दृष्टान्तोऽपि । पस्तु दार्टान्तिके हेतुं योजयितुं न जानीते, तं प्रत्युपनयोऽपि । एवमपि साकांक्ष प्रति च निगमनम् । पक्षादिस्वरूपविप्रतिपत्तिमन्तं प्रति च पक्षशुद्धयादिकमपीति सोऽयं दशावयवो हेतुः पर्यवस्यति । अतएव यही दो पराानुमान के अंग हैं, दृष्टान्त, उपनय और निगमन नहीं । परप्रतिपत्ति पक्ष और हेतुके प्रयोगसे हो जाती है, अविनाभाव संबंधका निर्णय तर्क प्रमाणसे होता है और अविनाभावका स्मरण पक्ष तथा हेतुके प्रदर्शनसे हो जाता है । अतएव इनमें से किसी भी प्रयोजनके लिए दृष्टान्त आदिके प्रयोगको आवश्यकता नहीं है। समर्थनके अभावमें दृष्टान आदि प्रतिपत्ति के कारण नहीं होते हैं, और समर्थन होनेपर वे अन्यथासिद्ध बन जाते हैं। ___असिद्धत्व आदि दोषों का निवारण करके हेतुका अपने साध्य के साथ अविनाभाव सिद्ध कर देना समर्थन कहलाता है । समर्थनसे ही परको प्रतीति हो जाती है, ऐसी स्थिति में परप्रतीतिके लिए दूसरे प्रयासको आवश्यकता ही क्या है ? हाँ, मन्दबुद्धि जिज्ञासुओंको समझानेके लिए दृष्टान्त, उपनय और निगमनका प्रयोग करना भी उपयोगी है । जिसने अपने क्षयोपशमकी विशिष्टतासे पक्षका निर्णय कर लिया है, जो दृष्टान्तके द्वारा स्मरण करान योग्य अविनाभावके ग्राहक तर्क प्रमाणको स्मरण करने में कुशल है तथा अन्यान्य अवयवोंका विचार करने में समर्थ है, उसके समक्ष केवल हेतुका प्रयोग करना ही पर्याप्त है। उसके लिये पक्षका प्रयोग करना आवश्यक नहीं है, किन्तु जिसने अभी तक पक्षका निर्णय नहीं कर पाया है, उसके लिए पक्षका भी प्रयोग करना उचित है । जो अविनाभाव-ग्राहक प्रमाण-तर्क-का स्मरण नहीं कर पाता है, उसके लिए दृष्टान्त का भी प्रयोग करना चाहिए । जो दार्टान्तिक (पक्ष) में हेतुकी योजना करना नहीं जानता उसके लिए उपनयका भी प्रयोग आवश्यक है। इतना करनेपर भी जो साकांक्ष रहे अर्थात् अधिक समझनेका इच्छुक हो, उसके लिए निगमनका भी प्रयोग करना चाहिए। जिसको पक्ष आदिके स्वरूपके विषयमें विप्रतिपत्ति हो, उसके लिए पक्ष आदि पांचों अवयवोंकी शुद्धि भी दिखलानी चाहिए। इस प्रकार परार्थानुमानके दश अवयव भी हो सकते हैं।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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