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________________ प्रमाणपरिच्छेदः यत आलोचनं व्यञ्जनावग्रहात् पूर्व स्यात्, पश्चाद्वा, स एव वा ? नाद्यः; अर्थ-- व्यञ्जनसम्बन्धं विना तदयोगात् । न द्वितीयः; व्यञ्जनावग्रहान्त्यसमयेऽर्थावग्रहस्यवोत्पादादालोचनानवकाशात् । न तृतीयः; व्यञ्जनावग्रहस्यैव नामान्तरकरणात्, तस्य चार्थशून्यत्वेनार्थालोचनानुपपत्तेः। किञ्च, आलोचनेनेहां विना झटित्येवार्थावग्रहः कथं जन्यताम् ? युगपच्चेहावग्रहौ पृथगसङ्घयसमयमानौ कथं घटेताम् ? इति विचारणीयम् । १. नन्ववग्रहेऽपि क्षिप्रेतरादिभेदप्रदर्शनादसङ्ख्यसमयमानत्वम्, विशेषविषयत्वं चाविरुद्धमिति चेन्न; तत्त्वतस्तेषामपायभेदत्वात्, कारणे कार्योपचारमाश्रित्यावग्रहभेदत्वप्रतिपादनात्, अविशेषविषय विशेषविषयत्वस्यावास्तवत्वात् । २-अथवा अवग्रहो द्विविधः-नैश्चयिकः; व्यावहारिकश्च। आद्यः सामा __ उनका यह कथन सत्य नहीं है। यह अर्थावग्रहका कारण जो आलोचन आपने कहा,वह व्यंजनावप्रहसे पूर्व होता है, पश्चात् होता है अथवा व्यंजनावग्रह ही आलोचन है ? व्यंजनावग्रहसे पहले तो वह हो नहीं सकता क्योंकि अर्थ एवं व्यंजनका संबंध होनेसे पहले आलोचन संभव नहीं और अर्थ-व्यंजनका संबंध व्यंजनावग्रह है। व्यंजनावग्रहके बाद आलोचनका होना भी ठीक नहीं, क्योंकि व्यंजनावग्रहके अंतिम समयमें अर्थावग्रह उत्पन्न हो जाता है। इन दोनोंके बीचमें आलोचनके लिए कोई अवकाश-समय ही नहीं है । अगर तीसरा पक्ष स्वीकार किया जाय तो व्यंजनावग्रहका ही दूसरा नाम आलोचन होगा, किन्तु व्यंजनावग्रह अर्थज्ञान-शून्य होता है, अतएव वह अलोचन नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि ईहाके विना झट-से आलोचन अर्थावग्रहको कैसे उप्पन्न कर देगा? कदाचित् कहो कि अवग्रह और ईहा, दोनों साथ-साथ हो जाते हैं तो कथन घटित नहीं हो सकता । सोचना चाहिए कि दोनोंका समय असंख्यात-असंख्यात समयका है, तो दोनों एक साथ कैसे हो सकेंगे ? १. शंका-अवग्रहमें भी क्षिप्रग्राही अक्षिप्रग्राही आदि भेद दिखलाये जाएँगे, अतएव वह मानने में कोई विरोध नहीं है कि अवग्रहका भी असंख्यात समय का काल है और वह विशेष को जानता है। समाधान-क्षिप्रग्राही, अक्षिप्रग्राही आदि जो अवग्रहके भेद बतलाए जाएँगे, वास्तव में वे अपायके भेद हैं । सिर्फ कारण में कार्य का उपचार करके ही उन्हें अवग्रहका भेद कहा गया है । अर्थात् अपाय कार्य है और अवग्रह तथा ईहा उसके कारण हैं। कारणमें कार्यका धर्म योग्यतारूप में रहता है, इस अपेक्षासे अवग्रह-ईहा में अपायका उपचार ( आरोप ) कर लिया गया है । इसी कारण से उन्हें अवग्रह का भेद कहा गया है । सामान्य को विषय करनेवाले (अवग्रह) ज्ञान में क्षिप्रता आदि विशेष-विषयता अवास्तविक है पारमार्थिक नहीं। २. अथवा-अवग्रह दो प्रकार है-नैश्चयिक और व्यावहारिक । नैश्चयिक अवग्रह केवल
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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