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________________ जैन तर्क भाषा १ ननु यद्येवं सम्यग्ज्ञानमेव प्रमाणमिष्यते तदा किमन्यत् तत्फलं वाच्यमिति चेत्, सत्यम् ; स्वार्थव्यवसितेरेव तत्फलत्वात् । २ नन्वेवं प्रमाणे स्वपरव्यवसायित्वं न स्यात्, प्रमाणस्य परव्यवसायित्वात् फलस्य च स्वव्यवसायित्वादिति चेत्, न; प्रमाण-फलयोः कथञ्चिदभेदेन तदुपपत्तेः। ३ इत्थं चात्मव्यापाररूपमुपयोगेन्द्रियमेव प्रमाणमिति स्थितम् ; नाव्याप्त आत्मा स्पर्शादिप्रकाशको भवति, निर्व्यापारेण कारकेण क्रियाजननायोगात्, मसृणतूलिकादिसन्निकर्षेण सुषुप्तस्यापि तत्प्रसंगाच्च । न हो जाय। संशय, विपर्यय और अनध्यवसायमें अतिव्याप्ति निवारण करनेके लिए 'व्यवसायि' पद दिया गया है । ज्ञानको एकान्त परोक्ष माननेवाले मीमांसकोंके मतका निरास करनेके लिए तथा ज्ञानान्तरसे ज्ञानका प्रत्यक्ष माननेवाले यौगमतका निषेध करनेके लिए 'स्व' शब्द दिया गया है और ज्ञानाद्वैत, ब्रह्माद्वैत आदि अद्वैतवादी मतोंका निषेध करने के लिए 'पर' शब्दका प्रयोग किया गया है; अर्थात् 'स्व' शब्दका प्रयोग करके यह दिखलाया गया है कि ज्ञान न अज्ञात रहता है और न उसे ज्ञात करने के लिए दूसरे ज्ञानकी आवश्यकता ही होती है । ज्ञान अपने आपको आप ही जान लेता है। इसी प्रकार 'पर' शब्द प्रयुक्त करके यह बतलाया गया है कि जगत्में एक मात्र ज्ञान या ब्रह्म तत्त्व ही नहीं हैं, किन्तु उनसे भिन्न घटपट आदि पदार्थ भी हैं और प्रमाणभूत ज्ञान वही है जो पर-पदार्थोंको भी पदार्थ रूप में जानता है । १ शंका-यदि सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण मान लिया जाय तो प्रमाणका फल क्या होगा? समाधान- ठीक है, किन्तु स्व और परका व्यवसाय ही प्रमाणका फल है । २ स्व-परव्यवसायको प्रमाणका फल माननेपर प्रमाण स्व-परव्यवसायी न ठहरेगा। क्यों कि प्रमाण सिर्फ परव्यवसायी होगा और प्रमाणका फल स्व-व्यवसायी । ऐसा समझना भी उचित नहीं है; क्यों कि प्रमाण और फलमें कथंचित् अभेद होनेसे प्रमाणमें स्व-परव्यवसाय घटित हो जाता है। ३ इससे सिद्ध हुआ कि आत्मव्यापाररूप उपयोग-इन्द्रिय ही प्रमाण है। आत्मा जब . तक उपयोग-व्यापारसे युक्त न हो तब तक स्पर्श आदि विषयोंका प्रकाशक नहीं हो सकता। व्यापारसे रहित कारक ( करण) क्रियाको उत्पन्न नहीं कर सकता । उपयोग ( व्यापार) के विना ज्ञप्ति संभव होती तो सुषुप्त पुरुषको नरम-नरम रूई आदिके सन्निकर्ष मात्रसे ज्ञप्ति हो जाती। किन्तु ऐसा कहीं देखा नहीं जाता, अतः उपयोग-इन्द्रिय ही प्रमाण है।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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