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________________ (१३) पृष्ठ २६, पं. ६ अनुभवस्मृतिहेतुकं प्रत्यभिज्ञानम् - जैनेतर दर्शनों में प्रत्यभिज्ञा शब्द का प्रयोग साधना के क्षेत्र में मिलता है। कश्मीर की पीवसाधना को प्रत्यभिज्ञा-दर्शन कहा जाता है। वहाँ यह माना गया है कि प्रत्येक जीव शिव अर्थात् परमात्मा का संकुचित रूप है। अपने आप में शिव होने पर भी अज्ञान के कारण जीव या पशु मान रहा है। उसके दूर होते ही अपने स्वरूप को पहचान लेता है और शिव हो जाता है। इसी पहचान को प्रत्यभिज्ञा कहा गया है। लौकिकज्ञान के क्षेत्र में इसके स्थान पर उपमान शब्द का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ है-तुलना के द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान । किसी व्यक्ति को कहा जाता है कि 'गवय' गाय के सदृश होता है । वन में जाकर वह गो-सदृश प्राणी को देखता है और समझ लेता है कि यह गवय है न्याय तथा सांख्यदर्शन इसकी परिभाषा इसी रूप में करते हैं । किंतु जैनदर्शन इसकी व्याख्या व्यापक रूप में करता है । उसका कथन है कि प्रत्यक्ष और स्मृति के उत्पन्न होने वाले सभी अनुभव प्रत्यभिज्ञान है उदाहरण के रूप में एक ही व्यक्ति को दुबारा देखकर हम कहते हैं "यह वही देवदत्त है" । यह एकत्व प्रत्यभिज्ञान है । मदत्त को देखकर हम कहते हैं-"यह देवदत्त नहीं है" दो भाइयों में से एक को देखकर कहते है यह उस सरीखा है। इस प्रकार एकत्व, वसाहत्य तथा साहस्य आदि सभी तुलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान में आजाते हैं। पृष्ठ २९, पं. २ एतेनेति-मीमांसक भी उपमान की व्याख्या में सादृश्य को आवश्यक नहीं मानते । उनका कथन है कि इसके लिए संज्ञा और संशि का संबंध पर्याप्त है हम किसी व्यक्ति को बताते हैं कि गवय ऐसा होता है । वन में जाकर वह उम्र लक्षणवाले प्राणी की देखता है और पहचान जाता है । यह ज्ञान लक्षण के आधार पर होता है। सादृश्य के आधार पर नहीं । पृष्ठ ३०, पं. ८ स्वरूपप्रयुक्ता व्याप्ति दो प्रकार की होती है। सोपाधिक और निरुपाधिक जहाँ साध्य किसी अन्य सरथ के बिना हेतु को व्याप्त करता है, उसे निरुपाधिक व्याप्ति कहा जाता है। जैसेअग्निद्वारा धूम की व्याप्ति। जहाँ धूम है, वहाँ अग्नि अवश्य होगी। इसके लिए अग्नि को किसी अन्य तत्व की अपेक्षा नहीं होती। अतः यह निरुपाधिक व्याप्ति है। इसके विपरीत धूम अग्नि को तभी व्याप्त करता है जब उसके साथ आई ईंधन हो। यहाँ आई ईंधन उपाधि है। इस संबंध को सोपाधिक कहा जाता है। जहाँ साध्य किसी उपाधि के बिना हेतु को व्याप्त करता है, उस संबंध को स्वरूपस्थ या स्वाभाविक कहा जाता है। वहीं पर हेतु को सम्यम माना जाता है, वही सोपाधिक होने पर हेत्वाभास हो जाता है। पृष्ठ ३१, पं. २ अथ स्वव्यापक... "ऊपर बताया जा चुका है कि व्याप्ति ज्ञान के बिना अनुमान नहीं हो सकता । हम दस-बीस स्थानों पर धूम और अग्नि को एक साथ देखते हैं और इसके द्वारा यह निश्चय करते हैं कि जहाँ धूम होगा, यहाँ अग्नि अवश्य होगी। यहाँ प्रश्न होता है कि कुछ स्थानों पर साहचर्य दर्शन से कालिक एवं सार्वदेशिक व्याप्ति का निश्चय कैसे हो सकता है ? दो मित्र बीसों बार एक साथ दिखाई देते हैं, किंतु इतने मात्र से यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही संभव नहीं है। इसके उत्तर में न्यायदर्शन सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति को उपस्थित करता है। उसका कथन है कि स्थानविशेष पर धूम और अग्नि को एक साथ देख कर हम धूमत्व और अग्नित्व के रूप में समस्त धूम एवं समस्त अग्नियों का ज्ञान कर लेते हैं और इसी आधार पर व्याप्ति का निश्चय करते हैं। इसके स्थान पर वह तर्कनामक स्वतंत्र प्रमाण को उपस्थित करता है और उसी को व्याप्ति का नियामक मानता है । अथ स्वव्यापकसाध्यसम्भवादिति चेत्-इसके विपरीत न्यायदर्शन का कथन है कि प्रत्यक्ष ही व्याप्ति को ग्रहण करता है । यहाँ पूछा जाता है कि चक्षु आदि इंद्रियों के द्वारा धूम और अग्नि के सामानाधिकरण्य को सर्वत्र कैसे जाना जा सकता है ? क्योंकि इंद्रियों का संबंध कुछ ही स्थानों के साथ हो सकता है। उत्तर में न्यायदर्शन का कथन है कि यद्यपि लौकिक संनिकर्ष कुछ ही स्थानों पर होता है, तथापि सामान्यलक्षणा
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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