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________________ (५) नंगमनयस्वरूपम् [ उपजातिवृत्तम् ] सामान्यधर्म स्वविशेषधर्म, स्वतूभयं वक्ति च नैगमोऽयम् । सामान्यधर्मो न विना विशेषं, विशेषधर्मोऽपि न तद् विना स्यात् ॥७॥ सरलार्थ नैगमनय का स्वरूप नंगमनय वस्तु में स्थित सामान्यधर्म (जाति) और विशेषधर्म दोनों को मानता है, क्योंकि विशेषधर्म के बिना सामान्यधर्म नहीं रहता है और न सामान्यधर्म के बिना विशेषधर्म ही रहा करता है। अतः नैगमनय वस्तु को उभयरूप स्वीकार करता है ।।५।। संग्रहनयस्वरूपम् [ उपजातिवृत्तम् ] नयो दितीयः किल संग्रहोऽयं, सामान्यमेवार्च ति निविशेषम् । सामान्यधर्माद व्यतिरिक्तधमः, मिष्टया खपुष्पस्य समानमेव ॥६॥ नयविमर्शद्वात्रिंशिका-७१
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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