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________________ इसी के विषय में नगमादि सातों नयों का वर्गीकरण दृष्टिभेद से करते हैं, तो इन सातों नयों को प्रथमतः दो नयों में विभक्त किया गया है। एक है द्रव्यास्तिक नय और दूसरा है पर्यायास्तिक नय । इन्हीं दो में सातों नयों को पुनः अन्तर्निहित किया गया है । प्रथम जो नैगम, संग्रह, व्यवहार तथा ऋजुसूत्र ये चार हैं, इन्हें द्रव्यास्तिक नय में समाविष्ट किया गया है क्योंकि ये चारों नय सामान्य अंश को ग्रहण करने वाले हैं। इनकी विचारणा सामान्यबोधक होती है, सर्वज्ञविभु श्रीतीर्थंकर भगवन्तों की देशना-में इस दृष्टि की भी संग्रहप्रस्तार के रूप में उपलब्धि होती है । दूसरा है पर्यायास्तिकनय जो शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत नय का समन्वयात्मक स्वरूप है। इसका दृष्टिकोण विशेष अंश को ग्रहण करने का पक्षपाती है, जो श्रीतीर्थंकरभगवन्तों की देशना में विशेषप्रस्तार के रूप में उपलब्ध होता है । ___ यही दो भेद हैं । संक्षिप्तरूप से यदि हम वर्णन करें तो इन दो दृष्टियों को छोड़कर हम पृथक् नहीं जा सकते । इनका प्रतिनिधित्व ये दो नय-भेद करते हैं । इस प्रकार से सातों नयों का अन्तर्भाव द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक इन दो नयों में समझना चाहिये ।।२१।। नयविमर्शद्वात्रिशिका-५६
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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