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________________ कालातिरिक्त अतीतानागतं गगनस्य आकाशस्य पद्म कमलं आकाशकुसुमसदृशं असत्तात्मक एव वर्तते ।।१२।। पद्यानुवाद : __ [ उपजातिवृत्तम् ] भूते भवातीत असत्-प्रनष्ट, पराऽपि वस्तु नहि सिद्धि युक्त । स्वकीय भावेन प्रवर्तमाना, है ग्राह य शेषास्तु खपुष्प जैसा ॥१२॥ भावानुवाद : ऋजुसूत्र नय पदार्थ की वर्तमानकालीन स्थिति को ही स्वीकारता है; प्रवर्तमान की पर्याय अवस्था जो वर्तमान समय में सत्तात्मक दृष्टिगत है, वही कार्यसिद्धि के लिये सहायक है। अतीत तो जो प्रनष्ट अवस्था में पर्याय की स्थिति लोपित रखता है उसे ऋजुसूत्र कैसे स्वीकारः करे तथा अनागत भविष्य वस्तु से जो भविष्य में उत्पन्न होने की संभावना से युक्त है, जिसकी सत्ता का अभी जन्म ही नहीं हुआ है ऐसा अनुत्पन्नभविष्य पर्याय भी ऋजुसूत्र स्वीकार नहीं करता है। जिस प्रकार कोई राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री या राज्याधिपति आदि पूर्व समय में, भूतकाल में रह चुका हो और वर्तमानकाल में वह चुनाव में पराजित होकर च्युत हो गया हो, तो उसकी पूर्व नय विमर्शद्वात्रिशिका-३२
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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