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________________ सत्तायुक्त वस्तुः पदार्थः न अस्ति नैव वर्तते । हस्तः एतेषां समवायः एव वर्तते इत्यर्थः । तथैव सामान्येन व्यतिरिक्त विशेषं नैव वर्तते ।।७।। पद्यानुवाद : [ हरिगीतवृत्तम् ] वनस्पति का ज्ञान नहीं है जगत् में जिस व्यक्ति को, वह कहां से जान लेगा ये आम्र-वट-निम्बादि को । नख तथा अंगुलियों से भिन्न रहता नहीं हस्त है, उसो माफिक सामान्य से विशेष भी नहीं भिन्न है ॥७॥ भावानुवाद : यदि कोई मनुष्य सामान्य वनस्पति से भी परिचित नहीं है तो क्या वह निम्ब-पाम्र-वट आदि के गुणों को पृथक्-पृथक् कर उन वृक्षों को जान सकता है ? कभी नहीं, क्योंकि जिसे वनस्पति-पेड़-पौधे-झाड़ी आदि का भी भेद करना नहीं आता उसे पेड़ के विशेष गुणधर्म के आधार पर भेद करना आदि नहीं आ सकता । नख तथा अङ्ग लियों से भिन्न क्या हाथ का अस्तित्व है ? नहीं। नख तथा अंगलि तो हाथ में ही हैं । वे उससे कदापि पृथक् नहीं हैं। उसी प्रकार से सामान्य से विशेष पृथक् नहीं है । वनस्पतिपना एक सामान्य धर्म है तथा निम्ब-पाम्र-वटत्व इत्यादि उसके विशेष धर्म हैं । ये 'विशेष' 'सामान्य' से भिन्न हैं ही नहीं। नयविमर्शद्वात्रिशिका-२०
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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