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________________ भावानुवाद : दूसरा नयं संग्रहनय के नाम से प्रसिद्ध है । यह वस्तु को सामान्यस्वरूप सामान्यधर्मी ही मानता है । सामान्यधर्म से वस्तु की - सामान्य सत्ता से पृथक् अन्य कोई और विशेष या अन्य अभिधेयात्मक सत्ता प्रकाशकुसुम के समान मिथ्या है या काल्पनिक है । उपकी सत्ता या उसका अस्तित्व है ही नहीं । क्यों ? " संगृह खातीति संग्रह: " इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो शंका या विचार या जिज्ञासा एक सामान्यधर्म के आधार पर पदार्थों का संग्रह करता है, यही संग्रह नय कहा जाता है । संग्रहनय के दो भेद प्रतिपादित किये गये हैं- एक परसंग्रह और दूसरा अपरसंग्रह | समस्त पदार्थों का या धर्मों का एकत्व संकलनात्मक स्वरूप परसंग्रह में अभीष्ट याने अपेक्षित होता है। विश्व में जीव, जीव आदि जितने भेद होते हैं उन सभी का इसी में समावेश हों जाता है । अपरसंग्रह द्रव्य में रहने वाली सत्ता परसामान्यधर्मी है तथा द्रव्य में स्थित द्रव्यत्व अपर सामान्यधर्म है । उसी प्रकार गुण में सत्ता पर तथा गुणत्व में अपर सामान्य है । इन सब का संकलनात्मक स्वरूप ग्रहण करना ही सामान्य नय का कार्य है । द्रव्य क्षेत्र कालादि की अपेक्षा उसकी बृहत्ता, दीर्घता, लघुता भी तदनुरूप होती जाती है ।।६।। 1 नयविमर्शद्वात्रिंशिका - १८
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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