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________________ सप्त नयों के नाम हैं - ( १ ) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार, ( ४ ) ऋजुसूत्र, (५) शब्द, (६) समभिरूढ़ और ( ७ ) एवंभूत । नय के भेदों के विषय में जैनदर्शन में आचार्यों के विभिन्न मत प्राप्त होते हैं । एक परम्परा सात नय को मानने वाली है । दूसरी परम्परा छह नय मान्यता वाली है, उनकी दृष्टि में नौगम कोई स्वतन्त्र नय नहीं है । यह तार्किकशिरोमणि आचार्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी महाराज का मत है । तीसरी परम्परा पांच नय मान्यता वाली तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की है; जो नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र एवं शब्दनय को मानती है । इस परम्परा के अनुसार मूल में नय के पांच भेद बताये गये हैं । इन पाँचों भेदों में से प्रथम नैगमनय के देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी ये दो भेद कहे हैं, तथा अन्तिम शब्दनय के भी साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन भेद कहे हैं । इन तीन परम्पराओं के विद्यमान होने पर भी नगमादि सात भेदों वाली परम्परा विशेष प्रसिद्ध है । 'नयकरणका' ग्रन्थ में भी समर्थ विद्वान् वाचक श्रीविनयविजयजी गरिणवर ने नय के भेदों के विषय में निम्नलिखित श्लोक प्रतिपादित किया है नैगम: संग्रहश्चैव, व्यवहारजु सूत्रकौ । शब्दः समभिरूढैवंभूतौ चेति नयाः स्मृताः ॥२॥ नयविमर्शद्वात्रिंशिका - ७
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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