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________________ अन्वय : 'अथ क्रमशः नैगम - संग्रह - व्यवहार ऋजुसूत्रनामतः शब्दः, पश्चात् समभिरूढः, सप्तम नय एवंभूत नामास्ति' इत्यन्वयः । व्याख्या : अथ नयानां भेदाः कथ्यन्ते । नयानां सप्तभेदाः सन्ति । तन्नामानि ग्रह प्रथमो नैगमनयः, द्वितीयः संग्रहनयः, तृतीयो व्यवहारनयः, चतुर्थः ऋजुसूत्रनयः, पञ्चमः शब्दनयः, तत्पश्चात् षष्ठः समभिरूढनयः, सप्तमः एवंभूतनयश्चेति । एतानि नयस्य नामधेयानि सन्ति । पद्यानुवाद : [ हरिगीतिवृत्तम् ] प्रथम नंगम द्वितीय संग्रह तृतीय व्यवहार है, चतुर्थ ऋजुसूत्रनय तथा पंचम ही शब्दनय है । षष्ठतम नय समभिरूढ़ सप्तम और एवंभूत है, क्रमयुक्त ये सात नय सिद्धान्त में सुप्रसिद्ध हैं ।। २ ॥ भावानुवाद : नयवाद का विषय प्रतिगहन है । उसके भेद के विषय में समर्थ विद्वान् श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणजी महाराज ने नयविमर्शद्वात्रिंशिका-५
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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