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________________ अभिलाषा मदीयेयं, जायतां जगतां हिते। यावच्चन्द्रार्कभावन्ती, तावद् ग्रन्धो विभासतु ॥३१॥ सरलार्थ-- मेरी अभिलाषा है कि यह ग्रन्थ सबको तर्कशास्त्रन्यायशास्त्र का ज्ञान सुगमता से प्रदान करे तथा जब तक चन्द्र और सूर्य हैं तब तक यह सुशोभित रहे ।।३१।। (६) [ वसन्ततिलकावृत्तम् ] दवात्रिंशिका नयविमर्शविचांसि पुष्पैः, पद्यात्मभावमकरन्दरसाभिरामः । गद्यात्मकाक्षतकणैः सुललामरूपैः, त्वामचयामि जिनशासनशास्त्रपीठे ॥३२॥ सरलार्थ हे जिन ! आगम शास्त्रपीठ पर मैं पद्यमय भावमकरंदरसों से युक्त नबविमर्शद्वात्रिंशिका रूपी पुष्पों से तथा गद्यात्मरूप सुन्दर पूजाक्षतों से आपकी अर्चना करता हूँ ॥३२॥ ॥ इति श्रीनयविमर्शद्वात्रिंशिका हिन्दी सरलार्थ समाप्त ।। नयविमर्शद्वात्रिशिका-८८
SR No.022450
Book TitleNayvimarsh Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1983
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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