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________________ भाषनर्य। NNNN यादे यह कहो कि सहकारी कारणोंके मिलजाने परही वह (पदार्थ) कार्य करता है तो:-.. परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात्॥६४॥ भावार्थ-दूसर पदार्थोकी अपेक्षा रखनेसे वह परिणामी . माना जायगा; क्योंकि परिणामीपनेके बिना यह हो ही नहीं सकता है, कि एकाकी तो कार्य न करें और मिलकर कार्य करें। भावार्थ-जो पहले कार्य नहीं करता था वह यदि किन्हीं कारणोंके मिलने पर कार्य करने लगजाय ; तो यही कहना होगा, कि यह कार्यरूप परिणत होगया है अर्थात् पहले कार्यरूप परिणत नहीं था और अब होगया है, बस ; इसीको परिणामापना कहते हैं। अब दूसरे असमर्थपक्षका खण्डन करते हैं:स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात्पूर्ववत् ॥६५॥ भाषार्थ-जो स्वयं असमर्थ है वह कार्योंको कर ही नहीं सकता है क्योंकि वह कार्य करनेवाला नहीं है, जैसे उसी की पहली अवस्था ( हालत )। भावार्थ-जो स्वयं असमर्थ है वह सौ सहकारी मिलने पर भी किसी कार्यको नहीं कर सकता है। इसप्रकार विषयाभासका वर्णन हुआ। अब फलाभासका वर्णन करते हैं:-- - फलाभासं प्रमाणादाभिन्न भिन्नमववा ॥६६॥. , भाषार्थ-प्रमाणसे फल (अज्ञानकी निवृत्ति) को सर्वषा भिन्न ही तथा सर्वथा अभिन्न ही मानना, फलाभास है।
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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