SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पालु+-- भावार्थ- स्वयं मौजूद है माता भी कह रहा है फिर कहता है कि मेरी माता बन्ध्या है यह पक्ष उसीके वचन ( मेरीमाता) से बाधित है । हेत्वाभासके भेद:हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानैकान्तिकाकिञ्चित्कर।ः ॥ २१ ॥ भाषार्थ — प्रसिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक र श्रकिञ्चित्करये चार, हेत्वाभासके भेद हैं । असिद्धहेत्वाभास के भेद और स्वरूपःअसत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ॥ २२ ॥ भाषार्थ - जिसकी सत्ताका अभाव हो उसको स्वरूपासिद्ध और जिसका निश्चय न हो उसको संदिग्धासिद्ध कहते हैं । बस; स्वरूपासिद्ध और सँदिग्धासिद्ध, पे ही प्रसिद्ध हेत्वाभासके दो भेद हैं । स्वरूपासिद्धका उदाहरणः - अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ॥ २३ ॥ भाषार्थ — शब्द परिणामी होता है क्योंकि वह चचुसे जाना जाता है। भावार्थ -- " शब्द चनसे जाना जाता है यह हेतु स्वरूपसे ही प्रसिद्ध है क्योंकि शब्द, नेत्रसे नहीं; किन्तु कर्ण से जाना जाता है । अब इसके स्वरूपासिद्ध होने में हेतु देते हैं:स्वरूपेणासत्वात् ॥ २४ ॥ -
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy