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________________ बनाई हुई १२०० श्रीप्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी टीका है और श्रीअनन्तवीर्यकी बनाई हुई.श्रीप्रमेयरत्नमाला नामकी टीका है। इस अनुवादके विषयमें हमारा यही नम्र निवेदन है कि इस अनुवादको लिखते समय शब्दार्थ और भावार्थ पर विशेष लक्ष्य दिया गया है और साथ में यह भी प्रयत्न किया गया है कि भाषा सरल हो, फिर भी कहीं कहीं कोई कठिन शब्द मागया है उसके लिए पाठकोंको आगे पीछे देख लेना चाहिए । मैं नहीं कह सकता हूं कि इसके लिखने में मैंने कहां तक सफ. लता प्राप्तकी है इसका निर्णय करना पाठकोंके ऊपर ही निर्भर है, यदि वाचकोंने इसे अपनाया और इससे कुछ भी लाभ उठाया तथा मुझ कुछ भी उत्साह दिया; तो मैं फिर भी उनकी सेवा करनेका साहस करूंगा और अपना सौभाग्य समझंगा। इस प्रन्यके लिखनेमें हमारे मित्रोंने हमें बहुत उत्साह दिया है इसलिये हम उनका बड़ा भारी आभार मानते हैं और उनकी सेवामें धन्यवाद भेट करते हैं । अन्तमें हम श्रीयुक्त पं० उमरावसिंहजी सा० को विशेष धन्यवाद देते है। क्योंकि आपने हमारे पूर्ण उत्साहको बढ़ाया है । इत्यलम् । वैशाख शुक्ल ३) संवत् १९७२ काशी। ) . घनश्यामदास. तु पुस्तक मिलने के पते: (१) घनश्यामदास जैन, स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी । (२) बंशीधर जैन, मास्टर बुढ़वार (ललितपुर)
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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