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________________ भूमिका । इस संसार चक्रमें अनेक मत प्रचलित हैं और वे सबही अपने पापको सत्पथगामी बताते हैं-मोक्षमार्गी कहते हैं, और यह भी कहते हैं कि हमारे मार्ग पर चलनेसे ही अभीष्ट फल लाभ होसकता है। ऐसी अवस्थामें किसी भोले जिज्ञासु को, सच्चेमार्गको खोज करने में बड़ो भारी अड़चनें ा पड़ती हैं जिससे वह बेचारा आत्मकल्याणसे वश्चितही रह जाता है और दुःखमय संसार चक्रमें चक्कर लगाया करता है। परन्तु प्राचार्योंने जो परोक्षाके लिए प्रमाणरूपी कसौटी तैयारकी है यदि उससे जाँचकर सच्चे पदार्थों का निर्णय कियाजाय; तो हम दावेके साथ कह सकते हैं कि कोई भी पुरुष भान्त नहीं होसकता-(ठे मार्गमें नहीं फंस सकता; क्योंकि जैसे तराजू. से तुले हुए किसी पदार्थमें सन्देह नहीं रहता है या यों कहिए कि कसौटी पर घिसकर जांच हुए सुवर्णमें कोई सन्देह नहीं रहता है। वैसेही प्रमाण द्वारा निर्णीत पदार्थों में भी सन्देह नहीं रहता है । सो ही उमास्वामी महाराजने कहा है किःप्रमाणनयैरधिगमः । जिन पदार्थोके श्रद्धान, ज्ञान और प्राचणको मोक्षमार्ग कहते हैं उन पदार्थों का निर्णय करना सत्पथगामिमोको अत्यावश्यक है । वे पदार्थ, जीव, अजीव, बंध और मोक्ष हैं । परन्तु जिन भाइयों को संस्कृतका ज्ञान नहीं है वे संस्कृतके ग्रन्थोंसे प्रमाणके स्वरूपको नहीं जान सकते हैं और प्रमाणको बिना जाने मोक्षमार्गके विषयभूत पदार्थोंका निर्णय भी नहीं कर सकते हैं। इस विचारसे-कि केवल, भाषाको जाननेवाले भी प्रमाणके स्वरूपको सुगमतासे समझ सकें और पदार्थों का निर्णय कर सत्पथगामी बनसकें.
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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