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________________ __परीचालुख भावार्थ-कृतिका का उदय अन्तर्मुहूर्त पहले होता है और रोहणी का उदय पीछे होता है; इस लिए इन दोनों में क्रमभाव माना जाता है, इसी प्रकार अग्नि और धूम में भी क्रमभाव माना जाता है; क्योंक अग्नि के बाद में धूम होता है। इसको अनन्तरभाव नियम भी कहते हैं । इस व्याप्ति (अविनाभाव ) का ज्ञान-निर्णय, तर्कप्रमाण से होता है । सोही प्राचार्य कहते हैं:तर्कासनिर्णयः ॥ १९ ॥ भाषार्थ--तर्कप्रमाण -ऊहप्रमाण, से व्याप्ति अर्थात् अविनाभाव का निर्णय होता है। भावार्थ-जहां २ साधन होता है वहां २ साध्य रहता है और जहां साध्य नहीं होता, वहां साधन भी नहीं रहता है । इस प्रकार के अविनाभाव का निश्चय अर्थात् सच्चा ज्ञान, तर्कप्रमाण अर्थात् ऊह प्रमाण से होता है. अन्य किसी प्रमाण से नहीं । विशेष बात यह है कि जैनियों के सिवाय और किसी भी मतावलम्बी ने तर्कप्रमाण को नहीं माना है, इस लिए सब की मानी हुई प्रमाण संख्या झंठी ठहरती है अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, पागम, उपमान, अापत्ति, तथा अभाव किसी प्रमाण से भी व्याप्ति का निर्णय नहीं हो सकता है, इस लिए सब को ही तर्कप्रमाण मानना पड़ता है, तब प्रमाण संख्या जोकि स्वयं मानी थी कहाँ रहेगी । प्रत्यक्षादि प्रमाण व्याप्ति का निर्णय नहीं कर सकते हैं। इस बात को बड़े २ न्याय के ग्रन्थों से जानना चाहिए ।
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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