SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परीक्षामुख प्रतीति होती है, जिसको ऊपर के सूत्र से जान लेना चाहिये । भावार्थ-सवत्र पदार्थों का निर्णय प्रतीति से होता है, अर्थात् जिस पदार्थ की जैसी प्रतीति होती है, उसका वैसा ही स्वरूप माना जाता है । यदि ऐसा नहीं माना जाय; तो कभी पदार्थों का निर्णय ही न होगा । बस, कहने का तात्पर्य यह है; कि जब हम किसी पदार्थ को जानते हैं, तब इस सूत्र में दिखाई गई चार बातों की प्रतीति होती है। जो लोग इन चार बातों की प्रतीति को केवल शब्दादिक अर्थात् शब्द मात्र से होने वाली मानते हैं, उनके लिए आचार्य कहते हैं:शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥१०॥ भाषार्थ--शब्द को विना कहे भी अपनी-प्रतीति, अपने स्वरूप की प्रतीति, होती है। जिस तरह कि घट आदि शब्दों के विना उच्चारण किये ही घट आदि पदार्थों की प्रतीति होती है। भावार्थ--"मैं” इस प्रकार अपने स्वरूप का बोधक शब्द न बोला जाय तब भी अपने प्रात्मा की प्रतीति होती है। जिस प्रकार कि घट शब्द को बोले विना भी वट की । यदि केवल यह प्रतीति शाब्दिक ही होती, तो शब्द के अभाव में कभी न होती; परन्तु होती है । इससे सिद्ध होता है. कि यह प्रतीति शाब्दिक अर्थात् शब्द मात्र से ही होने वाली नहीं है । उसी को आचार्य, कुछ कौतुक करते हुए पुष्ट करते हैं:को वा तत्पतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥ ११ ॥
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy