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________________ १४ परीक्षामुख है और इनमें दोष उपस्थित होते हैं इसलिये ये फँठे हैं। इसप्रकार श्राभासीका वर्णन समाप्त हुआ। ____इति षष्ठः परिच्छेदः। सूत्रकारका अन्तिम वक्तव्यःपरीक्षामुखमादर्श, हेयोपादेयतस्वयोः । सविदे मादृशोबालः परीक्षादक्षवव्यधाम् ॥१॥ भाषार्थ--जिसतरह पराक्षा करनेमें कुशल पुरुष, अपने . प्रारम्भ किए हुये कार्यको पूरा करके ही छोड़ते हैं उसीतरह अपने सारखे मन्दबुद्धि बालकोंको हेय ( त्यागने योग्य) और उपादेय (ग्रहण करने योग्य ) पदार्थों का ज्ञान करानेके लिये दर्पणके समान, इस परीक्षामुख ग्रन्थका शुरू करके मैंने पूराकिया है। ... भावार्थ--जिसतरह दर्पण, भूषणोंसे मण्डित पुरुषकी सुन्दरता और विरूपताको सूचित कर देता है उसीतरह यह पदार्थ छोड़ने योग्य है तथा यह ग्रहण करने योग्य है, इसप्रकार यह ग्रन्थ भी बतला देता है । इसलिये इसको दर्पण की उपमा दी गई है। ॥समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥ Printed by Pandya Gulab Shankar, at the Tara Printing Works, Benares!
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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