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________________ ३४ आप्त- परीक्षा । न चाऽचेतनता तत्र सम्भाव्येत नियामिका | शंभावपि तदास्थानात् खादेस्तदविशेषतः ॥६४॥ आकाश में अचेतनता रहती है, और ईश्वर में नहीं रहती, इसलिये इस अचेतनता को ही महेश्वर में ज्ञान का समवाय मानने के लिये यदि नियामक मान लिया जाय तो क्या हानि है । (जैन) जिस प्रकार आकाश, ज्ञान से भिन्न होने के कारण अचेतन माना जाता है, उसी प्रकार महेश्वर, को भी आप के मत से ज्ञान से, सर्वथा भिन्न होने के कारण अचेतन ही मानना पड़ेगा, क्यों कि ज्ञान से भेद की अपेक्षा आकाश व महेश्वर में कोई भी अंतर नहीं है । नेशो ज्ञाता न चाज्ञाता स्वयं ज्ञानस्य केवलं । समवायात्सदा ज्ञाता यद्यात्मैव स किं स्वतः ॥६५॥ नायमात्मा न चानात्मा स्वात्मत्वसमवायतः । सदात्मैवेति चेदेवं द्रव्यमेव स्वतोऽसिधत् ॥६६॥ नेशो द्रव्यं नचाद्रव्यं द्रव्यत्वसमवायतः । सर्वदा द्रव्यमेवेति यदि सन्नेव स स्वतः ॥ ६७ ॥ न स्वतः सन्नसन्नापि सत्वेन समवायतः । सन्नेव शश्वदित्युक्तौ व्याघातः केन वार्यते ||६८||
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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