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________________ वैशेषिकमत-विचार । समवायियों में समवाय को यदि दूसरे समवाय से माना जाय तो दूसरे समवाय को तीसरे समवाय से मानना पड़ेगा, इस प्रकार अनन्त समवाय मानते चले जाने में अनवस्था दोष आजायगा। इसलिये समवाय की सिद्धि के लिये दिये हुए हेतु का "अबाधित" यह विशेषण समवायियों में समवाय के मानने से सिद्ध नहीं होता , और जब विशेषणही सिद्ध नहीं हुआ, तब इस के द्वारा व्यभिचार दोष भी नहीं आ सकता। (जैन) यदि आप महेश्वर और ज्ञान में समवाय का विशेषण विशेष्य सम्बन्ध से रहना स्वीकार करते हैं, तो हम पूछते हैं कि विशेषण विशेष्य सम्बन्ध भी अपने संबंधियों में किस संबंध से रहता है? सर्वथा भेदपक्ष में विना सम्बन्धान्तर के तो आप मान नहीं सकते । विशेषण विशेष्य सम्बन्ध से मानने में फिर वही अनवस्था दोष आता है । क्योंकि दूसरे विशेषण विशेष्य संबंध के लिये आपको तीसरा विशेषण विशेष्य सम्बन्ध मानना पड़ेगा। विशेषणविशेष्यत्वप्रत्ययादवगम्यते । विशेषणविशेष्यत्वमित्यप्येतेन दूषितम् ॥ ५५ ॥ (वैशेषिक) विशेषणविशेष्य ज्ञान से विशेषण विशेध्य संबंध की सिद्धि मानने पर अनवस्था दोष दूर हो जाता है । (जैन) जिस प्रकार " महेश्वर में ज्ञान" यहां पर
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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