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________________ वैशेषिकमत- विचार । २१ 1: तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं भिन्नं महेश्वरात् । कथं तस्येति निर्देश्यमाकाशादिवदजसा ॥ ३९॥ समवायेन तस्यापि तद्भिन्नस्य कुतो गतिः । इदमिति विज्ञानादवाध्यादव्यभिचारि तत् ॥ ४० ॥ इह कुंडे दधीत्यादि विज्ञानेनास्तविद्विषा । साध्ये सम्बन्धमात्रे तु परेषां सिद्धसाधनम् ॥ ४१ ॥ (जैन) हानि इतनी ही है, कि महेश्वर का ज्ञान जैसे महेश्वर से सर्वथा भिन्न है वैसे ही आकाश से भी सर्वथा भिन्न है, फिर वह ज्ञान आकाश का नहीं है और महेश्वर का है, यह नियम नहीं बनता । ( वैशेषिक ) महेश्वर का ज्ञान महेश्वर में ही समवाय सम्बन्ध से रहता है और आकाश में उस का समवाय सम्बन्ध नहीं है, इस लिये नियम बन ही जाता है (जैन) समवाय सम्बन्ध भी जब आप के मत में महेश्वर व ज्ञान से सर्वथा भिन्न है, तब महेश्वर व ज्ञान से सर्वथा भिन्न इस समवाय सम्वन्ध की सिद्धि भी नहीं हो सकती, क्योंकि यहां पर भी फिर वही प्रश्न उठता है कि यह समवाय सम्बन्ध भी महेश्वर और ज्ञान का ही क्यों है, आकाश और ज्ञान का क्यों नहीं । ( वैशेषिक ) महेश्वर में ही ज्ञान की अबाधित प्रतीति होती है आकाश में "
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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