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________________ । आस-परीक्षा। तीसरे की चौथे से मानी जायगी तो एक के लिये एक मानते जाने से अनन्त ज्ञानों की कल्पना करनी पड़ेगी, और विना प्रमाण के ही अनन्त ज्ञानों की कल्पना करते जाने से अनवस्था दोष आ जायगा । यदि अनवस्था दोष को हटाने के कारण इन अनन्तज्ञानों की बीज वृक्ष की तरह अनादि संतान मानोगे, तो ईश्वर के साथ अनादि कर्मों की संतान भी माननी पड़ेगी । क्योंकि बिना कारण में कम माने कार्य में क्रम नहीं बन सकता, और ईश्वर रूप कारण में नित्य होने से क्रम बनता ही नहीं है, इस लिये अदृष्ट स्वरूप कर्म (वैशेषिक के माने हुए धर्म अधर्म नामक कर्म) संतान के सिवा, ज्ञान के क्रम २ से होने में और कोई कारण नहीं सिद्ध हो सकता । और कर्म-संतान, बिना ईश्वर का शरीर माने नहीं सिद्ध हो सकता, और ईश्वर को सशरीर मानने से ईश्वर में मुक्तपना सिद्ध नहीं होता, और ईश्वर को मुक्त बैशेषिकों ने माना है। इस प्रकार अनेक दोष आने से ईश्वर का ज्ञान अनित्य भी सिद्ध नहीं होता। अव्यापि च यदि ज्ञानमीश्वरस्य तदा कथं । सकृत्सर्वत्र कार्याणामुत्पत्तिर्घटते ततः ॥ ३१ ॥
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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