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________________ किंचास्पष्टैवेयं तदेवेदमिति प्रतिपत्तिः, तस्मादपि न तस्याः प्रत्यक्षान्तर्भाव इति । अवश्यं चैतदेवं विज्ञेयं चक्षुरादेरैक्यप्रतीतिजननसामर्थ्य नास्तीति । अन्यथा लिङ्गदर्शनव्याप्तिस्मरणादिसहकृतं चक्षुरादिकमेव वयादिलिङ्गिज्ञानं जनयेदिति नानुमानमपि पृथक् प्रमाणं स्यात् । स्वविषयमात्र एव चरिता. र्थत्वाचक्षुरादिकमिन्द्रियं न लिङ्गिनि प्रवर्तितुं प्रगल्भमिति चेत् प्रकृतेन किमपराद्धम् ? ततः स्थितं प्रत्यभिज्ञानाख्यं पृथक्प्रमाणमस्तीति । और, यह प्रत्यभिज्ञान सदा अस्पष्ट ही रहता है इसलिये भी इ. सकाप्रत्यक्षमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता। यह निश्चय समझिये कि एकता आदिके ज्ञान करानेका सामर्थ्य चक्षुरादिकमें नहीं है, नहीं तो, लिङ्गदर्शन और व्याप्तिके स्मरणआदि सहकारी कारणोंसे युक्त चक्षुरादिकसे ही अग्नि आदिक साध्यका ज्ञान हो जायगा इसलिये अनुमानको पृथक् प्रमाण माननेकी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। यदि ऐसा कहो कि "चक्षुरादिक इन्द्रियां के. वल अपने विषयमें चरितार्थ हो चुकी, अर्थात् लिङ्गादिकका ज्ञान करा चुकीं इसलिये वे साध्यमें प्रवृत्त नहीं हो सकती" तो प्रत्यभिज्ञानने क्या अपराध किया है ? इससे यह सिद्ध होता है कि प्रत्यभिज्ञान प्रमाण प्रत्यक्षादिसे भिन्न ही है । सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमुपमानाख्यं पृथक् प्रमाणमिति केचिकथयन्ति तदसत्, स्मृत्यनुभवपूर्वकसङ्कलनज्ञानत्वेन प्रत्यभिज्ञानत्वानतिवृत्तेः । अन्यथा गोविलक्षणो महिष इत्यादिविसदृशत्वप्रत्ययस्य इदमसाइरमित्यादेश्च प्रत्ययस्य सप्रतियोगिकस्य पृथक्प्रमाणत्वं स्यात् । ततो वैसादृश्यादिप्रत्ययवत
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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