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________________ ५० (शङ्का) इस पूर्वोक्त कथनसे भी अरहंत ही सर्वज्ञ है यह कैसे सिद्ध हो? क्योंकि, कपिलादिकोंमें भी इसकी सम्भावना होसकती है। अर्थात् निर्दोषत्व हेतुसे सर्वज्ञताकी सिद्धि तो की, परन्तु उससे यह कैसे सिद्ध हुआ कि अरहंत ही सर्वज्ञ हैं ? क्योंकि, दूसरे कपिलादिक भी निर्दोष होनेसे सर्वज्ञ हो सकते हैं। (समाधान ) अरहंतके सिवा दूसरे कपिलादिक सर्वज्ञ नहीं हो सकते, क्योंकि, वे सदोष हैं । इस अनुमानसे उनमें सर्वशताका अभाव सिद्ध होता है । उनका उपदेश, न्याय और आगमसे विरुद्ध सिद्ध होनेके कारण सदोष, और उनके माने हुए सर्वथा एकान्तस्वरूप मुक्त्यादि पदार्थ, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंद्वारा बाधित सिद्ध होते हैं । इसी लिये स्वामी समन्तभद्राचार्यने कहा है कि "हे भगवन् तुम्ही निर्दोष हो, क्योंकि, तुम्हारे ही वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्ध हैं । जो तुमको इष्ट है वह प्रत्यक्षादिसे बाधित नहीं होता अतः तुम्हारे वचनोंका अविरोध सिद्ध है ॥१॥ जो तुम्हारे मतरूपी अमृतसे दूर हैं, अत एव जो वस्तुके स्वरूपको सर्वथा एकान्तसे मानने. वाले हैं किन्तु अपनेको आप्त माननेके अभिमानसे जाज्वल्यमान हो रहे हैं उनका इष्ट प्रत्यक्षसे बाधित है ॥२॥” इन दो कारिकाओंसे दूसरेके मानेहुए तत्त्वोंमें बाधा और अपने मानेहुए तत्त्वोंमें अबाधाका समर्थन करके "भावैकान्ते" इस कारिकासे लेकर “स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः" इस कारिका पर्यन्त विस्तार पूर्वक इस विषयका विवेचन आप्तमीमांसामें किया है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि अतीन्द्रिय केवलज्ञान अरहंतमें ही है। उनके वचन प्रमाण होनेसे अतीन्द्रिय अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका भी समर्थन होता है। इसलिये अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष निर्दोष सिद्ध है। इसीसे यह भी सिद्ध हो चुका कि प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद हैं । इति द्वितीयः प्रकासार
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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