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________________ ४८ न्यज्ञापकादिति चेत् , सत्यं, प्रकृतानुमानात्सामान्यतः सर्वज्ञत्वसिद्धिः। अर्हत एतदिति पुनरनुमानान्तरात् । तथाहि । अर्हन् सर्वज्ञो भवितुमर्हति निर्दोषत्वात् । यस्तु न सर्वज्ञो नासौ निर्दोषो, यथा रथ्यापुरुष इति केवलव्यतिरेकिलिङ्गकमनुमानम् । (शङ्का ) सम्पूर्ण पदार्थों को साक्षात् करनेवाला अतीन्द्रियप्रत्यक्ष तो सिद्ध हुआ, परन्तु वह अरहंतमें ही है यह कैसे? क्योंकि “किसीको प्रत्यक्ष है" यहांपर "किसीको” यह सर्वनाम सामान्यका बोध कराता है अर्थात् किसीको इस सर्वनामसे हम अरहंतको ही कैसे समझे कि वे ही सर्वज्ञ हैं। (समाधान) ठीक है, प्रकृत अनुमानसे सर्वज्ञकी सामान्यरूपसे ही सिद्धि होती है । परन्तु अरहंत ही सर्वज्ञ हैं यह दूसरे अनुमानसें सिद्ध होता है । वह अनुमान यह है कि अरहंत सर्वज्ञ हैं, क्योंकि वे निर्दोष हैं । जो सर्वज्ञ नहीं है वह निर्दोष नहीं होसकता, जैसे गलीमें घूमनेवाला साधारण मनुष्य । इस अनुमानमें सर्वज्ञत्वको सिद्ध करनेवाला निर्दोषत्व हेतु केवलव्यतिरेकी है। आवरणरागादयो दोषास्तेभ्यो निष्क्रान्तत्वं हि निर्दोषत्वम् । तत्खलु सर्वज्ञमन्तरेण नोपपद्यते किश्चिज्ज्ञस्यावरणादि दोषरहितत्वविरोधात् । ततो निर्दोषत्वमर्हति विद्यमानं सार्वज्ञ साधयत्येव । निर्दोषत्वं पुनरर्हत्परमेष्ठिनि युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वात्सिध्यति । युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वं च तदभिमतस्य मुक्तिसंसारतत्कारणत्वस्यानेकधर्मात्मकचेतनाचेतनात्मकतत्त्वस्य प्रमाणाबाधितत्वात्सुव्यवस्थितमेव । . शानावरणादि कर्म तथा रागद्वेषादिरूप दोषोंसे जो रहित है उसको निर्दोष कहते हैं । यह निर्दोषता विना सर्वशताके नहीं
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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