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________________ ३८ (ईहादिक) धारावाहिकबुद्धिकी तरह अप्रमाण हैं' यह शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि इन अवग्रहादिक ज्ञानोंमें विषयभेदकी अपेक्षासे अगृहीतग्राहकता ही है-जो अवग्रहका विषय है वह ईहाका नहीं, जो ईहाका है वह अवायका नहीं, और जो अवायका है वह धारणाका नहीं । जिनकी प्रतिभा निर्मल है, उनकी समझ में यह भेद बहुत सुलभतासे आसकता है' । ये अवग्रहादिक चारों ही ज्ञान जब इन्द्रियोंके द्वारा उत्पन्न होते हैं तब इनको इन्द्रियप्रत्यक्ष कहते हैं । और जब मनके द्वारा उत्पन्न होते हैं तब इनको अनिन्द्रियप्रत्यक्ष (मानस प्रत्यक्ष ) कहते हैं । इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि पञ्च । अनिन्द्रियं तु मनः । तद्वयनिमित्तकमिदं लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धत्वात्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमुच्यते । तदुक्तम् "इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् " इदं चामुख्यप्रत्यक्षमुपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् । कुतो नु खल्वेतन्मतिज्ञानं परोक्षमित्युच्यते "आधे परोक्ष " मिति सूत्रणात् । आद्ये मतिश्रुते परोक्षमिति हि सूत्रार्थ: । उपचारमूलं पुनस्त्र देशतो वैशद्यमिति कृतं विस्तरेण । इन्द्रियों के पांच भेद हैं- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, और १ यह पुरुष है इस प्रकार अवग्रहमें सामान्यरूपसे जिस पदार्थका प्रतिभास होता है उस ही पदार्थ के विशेष अंशोंमें इस प्रकार संशय होनेपर कि 'यह पुरुष तो है परन्तु दक्षिणका रहनेवाला है अथवा उत्तरका रहनेवाला' इस संशयको दूर करनेके लिये एक विशेष अंशको विषयकरनेवाले ज्ञानको ईहा कहते हैं । जैसे कि यह दाक्षिणात्य है । इसहीके दृढ ज्ञानको अवाय कहते हैं जैसे यह दाक्षिणात्य ही है । कालान्तर में अविस्मरणके निमित्तभूत ज्ञानको धारणा ( संस्कार ) कहते हैं । इसप्रकार इनके विषयोंमें अन्तर है ।
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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